।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
सन्त-महिमा



(गत ब्लॉगसे आगेका)
सन्त-महात्मा और उनको पहचाननेवाले बहुत ही दुर्लभ हैं आज तो दम्भ, पाखण्ड और बनावटीपन इतना हो गया कि असली सन्त-महात्माको पहचानना अत्यन्त ही कठिन कार्य हो गया है पर सच्चे जिज्ञासुको पता लगता है भगवान् कृपा करते हैं, तभी उनको पहचाना जा सकता है अब उनकी पहचान क्या हो ? भाई ! हम  उनकी पहचान नहीं करते, हम तो अपनी पहचान कर सकते हैं

हमने एक कहानी सुनी है एक नवयुवक राजगद्दीपर बैठा पाँच-सात वर्ष राज्य करनेके बाद उसने अपने राज्यके बड़े-बूढ़ोंको इकट्ठा करके पूछा‒‘आपलोग बतावें कि राज्य हमारा ठीक रहा या हमारे पिताजीका ठीक था ? अथवा हमारे दादाजीका ठीक था ? किसका राज्य ठीक रहा ? आपने हमारी तीनों पीढ़ियोंका राज्य देखा है । बेचारे सब चुप रहे एक बहुत बूढ़ा आदमी खड़ा होकर कहने लगा कि ‘महाराज ! हम आपकी प्रजा हैं आप उमरमें छोटे हैं तो क्या हुआ, आप हमारे मालिक हैं अब हम आपके बारेमें निर्णय कैसे करें कि आपमें कौन योग्य और कौन अयोग्य है ? कौन बढ़िया और कौन घटिया है ? यह हमारी क्षमता नहीं है मेरी बात पूछें तो मैं अपनी बात तो कह सकता हूँ, पर आपकी परीक्षा नहीं कर सकता ।’ राजाने कहा‒‘अच्छा ! अपनी बात बताओ ।’

वह कहने लगा‒‘जब आपके दादाजीका राज्य थाउस समय मैं जवान था मैं पढ़ा-लिखा था शरीरमें बल भी अच्छा था मैं एक लाठी पासमें रखता था उस समय यदि -१० आदमी एक साथ भी सामना करनेके लिये  जाते तो मैं हार नहीं खाता, बल्कि उन सबको मार दूँ‒ऐसा मेरा विश्वास था एक दिन मैं किसी गाँव जा रहा था रास्ते चलते मेरे कानमें किसी स्त्रीके रोनेकी आवाज आयी तो मैंने सोचा चलकर देखें, क्या बात है ? मैं आवाजकी दिशामें गया, तो देखा कि एक सुन्दर युवती अकेली जंगलमें बैठी रो रही है उसने बहुत कीमती गहनेकपड़े पहन रखे थे मैं अचानक उसके पास पहुँचा तो
वह डर गयी और एकदम चुप हो गयी मैंने बड़े प्यारसे कहा कि बहिन ! घबराओ मत बताओ कि तुम क्यों रो रही हो ? मेरे ऐसा कहनेपर वह आश्वस्त हुई और बोली‒‘मैं पीहरसे ससुराल जा रही थी साथमें -४ बैलगाड़ियाँ और ऊँट थे रास्तेमें डाकू मिल गये, तो उनसे मुठभेड़ हो गयी मेरे सम्बन्धी और डाकू आपसमें लड़ने लगे मुझे डर लगा तो भागकर जंगलमें चली आयी और यहाँ आकर बैठ गयी अब उनका क्या हाल हुआ, यह तो भगवान् जानें ? किन्तु मैं किधर जाऊँ, यह भी मुझे रास्ता मालूम नहीं है मेरा जन्म-गाँव तो दूर रह गयालेकिन ससुराल-गाँव पास ही है, ऐसा अन्दाज है लेकिन मैं जानती नहीं, क्या करूँ ? यह सोचकर रोना रहा है ।’ इस तरह कहकर उसने मुझे अपने ससुरालका पता बताया

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे