(गत ब्लॉगसे आगेका)
सन्त-महात्मा और उनको पहचाननेवाले बहुत ही दुर्लभ हैं । आज तो दम्भ,
पाखण्ड
और बनावटीपन
इतना हो गया कि असली
सन्त-महात्माको पहचानना अत्यन्त ही कठिन
कार्य
हो गया है । पर सच्चे जिज्ञासुको पता लगता है । भगवान् कृपा करते हैं, तभी उनको पहचाना जा सकता है । अब उनकी पहचान क्या हो ? भाई ! हम उनकी पहचान नहीं करते, हम तो अपनी पहचान कर सकते हैं ।
हमने एक कहानी सुनी है । एक नवयुवक राजगद्दीपर बैठा । पाँच-सात वर्ष राज्य करनेके बाद उसने अपने राज्यके बड़े-बूढ़ोंको इकट्ठा करके पूछा‒‘आपलोग बतावें कि राज्य हमारा ठीक रहा या हमारे पिताजीका ठीक था ? अथवा हमारे दादाजीका ठीक था ? किसका राज्य ठीक रहा ? आपने हमारी तीनों पीढ़ियोंका राज्य देखा है । बेचारे सब चुप रहे । एक बहुत बूढ़ा आदमी खड़ा होकर कहने लगा कि ‘महाराज ! हम आपकी प्रजा हैं । आप उमरमें छोटे हैं तो क्या हुआ, आप हमारे मालिक हैं । अब हम आपके बारेमें निर्णय कैसे करें कि आपमें कौन योग्य और कौन अयोग्य है ? कौन बढ़िया और कौन घटिया है ? यह
हमारी क्षमता नहीं है । मेरी बात पूछें तो मैं अपनी बात तो कह सकता हूँ, पर आपकी परीक्षा नहीं कर सकता ।’ राजाने कहा‒‘अच्छा ! अपनी बात बताओ ।’
वह कहने लगा‒‘जब आपके दादाजीका राज्य था, उस समय मैं जवान था । मैं पढ़ा-लिखा था । शरीरमें बल भी अच्छा था । मैं एक लाठी पासमें रखता था । उस समय यदि ५-१० आदमी एक साथ भी सामना करनेके लिये आ जाते तो मैं हार नहीं खाता, बल्कि उन सबको मार दूँ‒ऐसा मेरा विश्वास था । एक दिन मैं किसी गाँव जा रहा था । रास्ते चलते मेरे कानमें किसी स्त्रीके रोनेकी आवाज आयी । तो मैंने सोचा चलकर देखें, क्या बात है ? मैं आवाजकी दिशामें गया, तो देखा कि एक सुन्दर युवती अकेली जंगलमें बैठी रो रही है । उसने बहुत कीमती गहने, कपड़े पहन रखे थे । मैं अचानक उसके पास पहुँचा तो
वह डर गयी और एकदम चुप हो गयी । मैंने बड़े प्यारसे कहा कि बहिन ! घबराओ मत । बताओ कि तुम क्यों रो रही हो ? मेरे ऐसा कहनेपर वह आश्वस्त हुई और बोली‒‘मैं पीहरसे ससुराल जा रही थी । साथमें २-४ बैलगाड़ियाँ और ऊँट थे । रास्तेमें डाकू मिल गये, तो उनसे मुठभेड़ हो गयी । मेरे सम्बन्धी और डाकू आपसमें लड़ने लगे । मुझे डर लगा तो भागकर जंगलमें चली आयी और यहाँ आकर बैठ गयी । अब उनका क्या हाल हुआ, यह तो भगवान् जानें ? किन्तु मैं किधर जाऊँ, यह भी मुझे रास्ता मालूम नहीं है । मेरा जन्म-गाँव तो दूर रह गया, लेकिन ससुराल-गाँव पास ही है, ऐसा अन्दाज है । लेकिन मैं जानती नहीं, क्या करूँ ? यह सोचकर रोना आ रहा है ।’ इस तरह कहकर उसने मुझे अपने ससुरालका पता बताया ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे |