।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७२, शनिवार
एकादशी-व्रत कल है (सबका)

सन्त-महिमा



(गत ब्लॉगसे आगेका)

मैं उस गाँवको जानता था, इसलिये मैंने उससे कहा‒बहिन ! तुम चलो, डरनेकी कोई बात नहीं है, मैं तुम्हारे साथ हूँ पूछनेपर उसने अपने श्वशुरका नाम कागजपर लिखकर बताया मैं उसके श्वशुरको जानता थाइसलिये उसे उसके ससुराल ले गया रात हो चुकी थीसब लोग तरह-तरहकी चिन्ता कर रहे थे वे लोग बहुत दुःखी थे; क्योंकि बहूके शरीरपर गहने आदि बहुत थे । बहूको सही-सलामत पहुँची देखकर सबके मनमें प्रसन्नता छा गयी उस स्त्रीने अपने घरवालोंसे कहा‒इन सज्जनको मैं पिता कहूँ या भाई कहूँ इन्होंने मुझे बड़े प्यारसे धीरज दिलाया और यहाँतक पहुँचाया उसके श्वशुर मुझे इनाम देनेके लिये पाँच-सात सौ रुपये लाये और लेनेका आग्रह करने लगे मैंने अपना कर्त्तव्य समझकर यह काम किया था कि कोई दुःखी है तो उसका दुःख दूर हो जायइसलिये मैंने रुपये नहीं लिये मैंने मनमें सोचा कि अपने कर्त्तव्य-पालनकी बिक्री नहीं करूँगा मेरे मनमें रुपये न लेनेसे बड़ा सन्तोष रहा मैं वापस चला आया

यह बात तो आपके दादाजीके समयकी थी इसके बाद आपके पिताजीका राज्य आया उनके राज्य-कालके पाँच-सात वर्ष बीतनेपर एक बार मेरे व्यापारमें बड़ा घाटा लगा धनकी तंगी हुई तो मेरे मनमें बात आने लगी कि उस समय इतना अच्छा अवसर मिला था, दस-पन्द्रह हजारका तो गहना ही था अकेली स्त्री थी, एक थप्पड़ मारता तो सारा गहना, जेवर मिल जाता आज यह दुःख नहीं भोगना पड़ता उस समय बड़ी भूल हो गयी अब
पछतानेसे क्या हो जब वे इनाम देने लगे, तब भी नहीं लिया बड़ाईका भूखा आज तंगी भोगता है इस प्रकारके भाव मनमें आये थे महाराज ! आप तो अवस्थामें मेरे पोतेके समान हैं, आपके सामने कहनेमें लज्जा आती है अब तो मनमें ऐसे भाव रहे हैं कि उस समय उस स्त्रीको समझा-बुझाकर या धमकाकर अपनी स्त्री बना लेता, तो आज वह मेरी सेवा करती और धन भी मिल जाता परन्तु, अब तो बात हाथसे निकल गयी, पछतानेसे क्या लाभ ? इस तरह महाराज ! हम तो अपने मनके विचार बता सकते हैं आप ! राजाओंका निर्णय कौन करे । आपका निर्णय करनेकी ताकत हममें कहाँ !

राजा समझ गया कि बुड्ढा बड़ा बुद्धिमान् है । ‘यआ राजा तथा प्रजा ।’ यह बात भी कह दी और हमें रुष्ट भी नहीं किया इस तरह सन्तोंकी पहचान हम नहीं कर सकते कि ये कहाँतक पहुँचे हुए हैं, किन्तु उनके पास जानेसे हमारे मनमें मच रही हलचल शान्त होती हो, बिना पूछे शंकाओंका समाधान होता हो, मनमें सन्तोष होता हो, अपनेमें दैवी सम्पदाके गुण आते हों अर्थात् दया, क्षमा, उदारता, त्याग, सन्तोष, नीति, धर्म आदिकी वृद्धि होती हो, दुर्गुण-दुराचार दीखने लगें और घटने लगें जिन महापुरुषोंके संग अथवा दर्शनोंसे ऐसी विलक्षणताएँ आती होंतो हम अन्दाज लगा सकते हैं परन्तु सन्तोंकी पहचान हम क्या कहें ? हमको क्या पता कि वे कैसे हैं ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे