॥ श्रीहरिः ॥
२८-३-८३ भीनासर धोरा
बीकानेर
बहुत बढ़िया बात है । उधर ख्याल किया जाय तो बहुत ही लाभकी बात
है, बड़े भारी लाभकी बात है । एक होती है स्वाभाविक बात और एक होती है अस्वाभाविक ।
स्वाभाविक उसे कहते है, जो
स्वतःसिद्ध है और अस्वाभाविक वह है, जो स्वतःसिद्ध नहीं है, किन्तु
बनायी हुई है । परमात्मतत्त्व
और संसार‒इन दोमें देखा जाय, तो परमात्मतत्त्व (चेतनतत्त्व) का अंश यह जीव है और प्रकृतिका
अंश यह शरीर है । परमात्माके साथ जीवका सम्बन्ध स्वाभाविक
है, स्वतःसिद्ध है और इसने जो शरीर और संसारके साथ सम्बन्ध
माना है, यह सम्बन्ध अस्वाभाविक है । इसकी पहचान क्या है ? यह पहले नहीं और पीछे नहीं रहेगा,
बीचमें यह माना हुआ सम्बन्ध है, जो कि अस्वाभाविक है तथा परमात्मा
और इसका खुदका सम्बन्ध स्वाभाविक है । वह अस्वाभाविक नहीं है,
स्वतः है ।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
(गीता
१५ । ७)
परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध स्वाभाविक है और संसारके साथ हमारा
सम्बन्ध कृत्रिम है अर्थात् बनावटी है । परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध असली है,
बनाया हुआ नहीं है । वह तो स्वतःसिद्ध है,
स्वाभाविक है । संसारका सम्बन्ध हमने
बनाया है और संसारको हम अपना मानते है‒यह कृत्रिम है अर्थात् अस्वाभाविक है; परन्तु
अस्वाभाविकमें स्वाभाविक भाव हो गया ।
जैसे, यह शरीर ‘मैं’ हूँ और कुटुम्ब, धन, सम्पत्ति आदि मेरी है । मैं और मेरा‒दोनों ही अस्वाभाविक हैं;
परन्तु इन्हें स्वाभाविक मान लिया है कि यह तो बात ऐसी ही है
। अब अभ्यासद्वारा इसको मिटाया कैसे जायगा ?
मैं-मेरेका भाव मिटानेके लिये हम अभ्यास करते है । जो अभ्यासजन्य बात होगी, वह
अस्वाभाविक ही होगी । जो अस्वाभाविक
है, उसको मिटानेके लिये अस्वाभाविक उद्योग किया जाता है । इससे अस्वाभाविकता मिटती
नहीं, क्योंकि अस्वाभाविकताका ही आदर किया जा रहा है । इस वास्ते अस्वाभाविकताको
अस्वाभाविक मान लें कि संसारमें जो मैं और मेरापन कर रखा है,
यह है नहीं; क्योंकि यह पहले नहीं था और पीछे नहीं रहेगा तो बीचमें कहाँ
है ? बीचमें जो अपना मानते है, उस अपनेपनका भी प्रतिक्षण सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है,
मानो वियोग हो रहा है । जितने दिन आप और हम जी लिये,
शरीर जी लिया, उतने दिन तो यह मर ही गया । उतने दिन तो शरीरका वियोग हो गया
। अब जितने दिन साथमें रहना है, उतने दिन रहेगा, फिर वियोग हो ही जायगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
|