(गत ब्लॉगसे आगेका)
शरीरके साथ हमारा सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं था और स्वाभाविक नहीं
रहेगा और अस्वाभाविक माना हुआ सम्बन्ध भी अस्वाभाविकमें पड़ा मिट रहा है । स्वाभाविकपना
स्वतः हो रहा है, मानो अलगपना हो रहा है । अगर इस बातको अभीसे मान ले,
संयोगकालमें ही वियोगका अनुभव कर लें । अस्वाभाविकके समय ही स्वाभाविकको दृढ़तासे मान लें कि यह मैं और मेरा नहीं है, क्योंकि
पहले नहीं था और पीछे नहीं रहेगा, अभी भी मिट रहा है । इसके साथ सम्बन्ध नहीं होनेसे हम ‘निर्ममो निरहंकार’
हो जायेंगे । और ‘निर्ममो निरहंकारः
स शान्तिमधिगच्छति ।’ सब शान्ति चाहते है । शान्ति कैसे मिले ?
स्वाभाविक शान्ति आपके साथमें है,
वह आपकी है, बिलकुल अपनी खुदकी है,
इस वास्ते वह अच्छी लगती है । अशान्ति अपनी नहीं है और अपनेको
बुरी लगती है, अच्छी नहीं लगती । इससे सिद्ध हुआ कि अशान्ति आपकी नहीं है ।
अशान्ति तो आपके अस्वाभाविकतामें स्वाभाविक भाव कर
लेनेसे पैदा हुई थी । अस्वाभाविकताको
छोड़कर अब अगर जो वास्तविकता है, मानो स्वाभाविकता है,
उसको आप अपना लें तो शान्ति हो ही जायगी । अशान्ति है ही नहीं,
स्वतः ही शान्ति है । अशान्ति तो पैदा होती है और मिटती है,
शान्ति न ही पैदा होती है और न ही मिटती है । शान्ति तो रहती
है, अशान्तिको पैदा करके शान्तिको उद्योग-साध्य मानते हैं । यह गलती
करते हैं ।
प्रकृति-पुरुषका अलगपना,
जड़ और चेतनका अलगपना यह स्वाभाविक है और इसके साथ एकता मानना
यह अस्वाभाविक है । अब अस्वाभाविकको स्वाभाविक मान लिया तो
इसको दूर करनेके लिये ज्ञान करो,
श्रवण करो, मनन
करो, निदिध्यासन करो, शास्त्रका
अभ्यास करो, सत्संग आदि करो, पर
ऐसा करनेसे यह दूर होगा‒यह बिलकुल गलती है । यह अलगपना तो स्वतःसिद्ध है । आप मूलमें अगर ठीक तरहसे स्वाभाविकताको
स्वीकार कर लें तो इसके लिये उद्योगकी क्या जरूरत है ?
और उद्योग करनेसे अस्वाभाविकता होगी;
क्योंकि जो अभ्यास-साध्य चीज होगी,
वो अस्वाभाविक होगी । इस वास्ते वर्षोंतक उद्योग करते हैं,
पर ठीक तरहसे स्थिति नहीं होती । क्यों नहीं होती ?
कि अस्वाभाविकताका आदर कर रहे हैं । अस्वाभाविकताको स्वाभाविकता
मानकर उद्योगके द्वारा अस्वाभाविकताको मिटाना चाहते हैं । और उद्योगद्वारा करेंगे तो अस्वाभाविकको स्वाभाविक मानकर ही करेंगे
। करते तो हैं सम्बन्ध-विच्छेद,
पर हो रहा है दृढ़ । ज्यों-ज्यों सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है,
त्यों-ही-त्यों दृढ़ हो रहा है । स्वाभाविकता आप स्वीकार कर लें
कि वास्तवमें इनके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है भाई ! ये तो बनाया हुआ है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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