(गत ब्लॉगसे आगेका)
आप अपनेको ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र समझते हैं । यह तो शरीर-धारण करनेके बाद आप समझते हैं,
इस शरीरमें नहीं आये तो क्या पहले ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र थे आप ? बिलकुल नहीं थे । ये जो अपनेको वर्ण और आश्रमका मानना है,
यह अस्वाभाविक है । स्वाभाविक नहीं है । बनावटी है,
कृत्रिम है और इनकी क्या इज्जत है । जन्म हो गया तो हम ब्राह्मण
हो गये साहब, हम क्षत्रिय हो गये,
हम वैश्य हो गये, शूद्र हो गये । क्या हो गये ?
आपने एक चोला पहन लिया । माँ-बापसे एक शरीर मिल गया । शरीर तो
माँ-बापसे ही मिला हुआ है । आपका नहीं है फिर आप ब्राह्मण कैसे हुए ?
एक जरा कड़ी बात है,
आपने पेशाबका इतना आदर कर दिया,
पेशाबको इतना महत्त्व दे दिया । थोड़ा विचार करो आप ! अन्तमें
यह है तो रज-वीर्य ही । यह अस्वाभाविकमें स्वाभाविक भाव है कि हम तो ब्राह्मण है ।
अरे भाई ! कबसे हो तुम ब्राह्मण ? हम तो बड़े है, छोटे हैं, हम तो मेहतर हैं । अरे,
तुम मेहतर कबसे हो गये ! न कोई छोटा
है, न बड़ा है, हम
स्वाभाविक ही परमात्माके अंश है और शरीर स्वाभाविक ही संसारका अंश है ।
अब इसमें दुरुपयोग करेंगे । अस्वाभाविकतामें स्वाभाविकता
कैसे लायेंगे ? कि सबके साथ खाओ-पीओ । अरे, इस
प्रकार तो धर्म-भ्रष्ट होनेसे बुद्धि और भ्रष्ट हो जायगी ! स्वाभाविकतासे बहुत दूर चले जाओगे;
परन्तु इसीको आज उन्नति मानते है । सबके साथ खाना-पीना कर लो,
सबके साथ ब्याह कर लो;
क्योंकि फर्क है ही नहीं । अब फर्क कैसे नहीं है ?
पेशाबमें तो फर्क है ही । अलग-अलग पेशाब है । रोगीका अलग होता
है, नीरोगका अलग होता है । ऐसे अलग-अलग होता है । उसे अलग-अलग मानना ही पड़ेगा । और
अगर मिला दो तो सब रोगी बनेंगे कि सब नीरोग बन जायेंगे ?
शुद्ध और अशुद्धको मिलानेसे अशुद्ध शुद्ध बनेगा कि शुद्ध अशुद्ध
बनेगा ? आप थोड़ा विचार करो । अपवित्र और पवित्र दोनों चीजोंको मिलाया
जाय तो पवित्र अपवित्र हो जायगा कि अपवित्र पवित्र हो जायगा । अब उलटा चलेंगे,
क्योंकि कलियुग आ गया,
इस वास्ते उलटी बात ठीक लगती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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