(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे आग पानी डालते ही बुझ गयी, बुझनेमें समय नहीं लगा;
परन्तु ठण्डी होनेमें समय लगेगा । इसी तरहसे परमात्मतत्त्व ‘है’
और संसार ‘नहीं है’ । इसका सम्बन्ध नहीं है । संसार कैसा
है ? कैसा नहीं है ? इसकी
कोई जरूरत नहीं है, हमारे साथ इसका सम्बन्ध नहीं है ।
जैसे बाल्यावस्थाके साथ आपका सम्बन्ध नहीं रहा । बूढ़े हो गये
तो जवानीके साथ सम्बन्ध नहीं रहा तो अब वृद्धावस्थाके साथ सम्बन्ध कैसे रहेगा ?
शरीरके साथमें सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है । गर्भमें आये तबसे
लेकर सौ वर्षकी उम्रतक निरन्तर वियोग हो रहा है, आपका वियोग तो है ही । अब इस बातको
आप मान लें तो वियोग आपका हो गया, हो गया, हो ही गया । अब उसका प्रभाव आपके देखनेमें न आवे तो उसकी आप
चिन्ता मत करो । इतनी बात मेरी मान लो । चाहे बोध होनेमें कई वर्ष लग जायँ तो भी परवाह
नहीं; परन्तु कट गया, इसमें किंचिन्मात्र सन्देह नहीं । जितनी यह दृढ़ता होगी आपकी,
उतना जल्दी प्रभाव नष्ट हो जायगा । और इसमें ढिलाई करते रहोगे
जहाँ प्रभाव नहीं दीखा, पीछा इस बातको ढीला करते रहोगे,
तो भाई ! उम्रभर भी शान्ति नहीं होगी । आपको दीखेगा नहीं,
अनुभव नहीं होगा, इस बातको ढीला करते रहे तो ।
एक ही बातपर आप कृपा करके आज दृढ़ता कर लो । ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेका’
भगवान् कहते हैं उसकी निश्चयवाली बुद्धि एक ही होती है ।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
(गीता २ । ४४)
भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त है,
उनकी बुद्धि निश्चय नहीं करती । तो बुद्धिके निश्चय न करनेमें
एक तो रुपयोंके संग्रहका आग्रह है और एक सुख-भोगका आग्रह है । ये दो महान् आग्रह है
। इसके सिवाय कोई बाधा नहीं है । ‘मेरे रुपये रह जायँ, ज्यादा
संग्रह कर लूँ और सुख भोग लूँ’‒यें दो महान् बाधाएँ है । इनकी परवाह मत करो । सच्ची बात यही है । कितना ही रुपया प्यारा लगे,
कितना ही भोग प्यारा लगे;
परन्तु ये छूटेगा जरूर । क्या पता ?
ख्याल करके सुनना, बहुत दामी बात है ।
भोग कितना ही प्यारा लगे, उससे
ग्लानि होती है, उससे उपरति होती है, उससे
आप स्वयं सम्बन्ध-विच्छेद करते हो, उसका तो आप आदर करते नहीं और संयोगका आदर करते हो‒यह
बड़ी भारी गलती होती है । लाखों रुपये
आपके पासमें पड़े है और अभी इन्क्वायरी आ जाय तो मनसे चाहते है कि अभी रुपये पासमें
नहीं रहते तो अच्छा था । उस समयमें उनका नहीं होना चाहते हैं,
पर उस बातको आप आदर नहीं देते हो । ऐसे ही परमात्माके सम्बन्धको
और संसारके वियोगको आप आदर नहीं देते हो, महत्त्व नहीं देते हो । यही बड़ी भारी गलती है और कोई गलती नहीं
है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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