(गत ब्लॉगसे आगेका)
गौरक्षा
खेती करनेवाले सज्जनोंको चाहिये कि वे गाय, बछड़ा, बैल आदिको
बेचें नहीं । खेती और गायका परस्पर बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है । खेतीसे गाय पुष्ट होती
है और गायसे खेती पुष्ट होती है । गोबर और गोमूत्रसे जमीन बड़ी पुष्ट होती है । मैंने सौ-सौ वर्षोंकी ढाणियाँ तथा
उनके खेतोंको देखा है, जो अभीतक पुराने नहीं हुए और उनमें खेती हो रही है । कारण कि
उसमें गायें बैठती हैं, बैल बैठते हैं और उनके गोमूत्र तथा गोबरसे जमीन पुष्ट होती रहती
है, खराब नहीं होती । अब विदेशी खाद लाकर खेतोंमें डालते
हैं तो उससे आरम्भमें कुछ वर्ष खेती अच्छी होगी, पर कुछ
वर्षोंके बादमें जमीन उपजाऊ नहीं रहेगी,
निकम्मी हो जायगी । विदेशोंमें तो खादसे जमीन खराब हो गयी है और वे लोग बम्बईसे
जहाजोंमें गोबर लादकर ले जा रहे हैं, जिससे गोबरसे जमीन ठीक हो जाय । गायोंके गोबर और गोमूत्रसे होनेवाली
खाद बहुत बढ़िया होती है । गाँवोंमें तो भेड़-बकरी बैठनेके लिये पैसा देते हैं कि आज
रात एवड़ (भेड़-बकरीके समूह) को हमारे यहाँ ही रखो,
जिससे वहाँ खाद हो जाय । एवड़को रखनेके लिये उलटा पैसा देते
हैं ! गायका गोबर और गोमूत्र तो बड़ा पवित्र होता है । गोबरमें
लक्ष्मीका और गोमूत्रमें गंगाका निवास है । घरमें किसीकी मृत्यु हो जाय अथवा
बालक पैदा हो जाय तो घरकी शुद्धिके लिये गोमूत्र लाकर छिड़कते हैं,
गोबरका चौका लगाते हैं । कोई मरनेवाला हो तो गोबरका चौका लगाकर
उसपर सुलाते हैं । जब बालकका नामकरण करते हैं,
तब गोबरका चौका लगाकर उसपर बालकको बैठाते हैं । इतनी पवित्र
चीज पैदा करती हैं गायें ! उन गायोंको ही आज खत्म कर रहे हैं,
फिर गोबर कहाँसे मिलेगा ?
इसलिये खेती करनेवालोंसे कहना है कि गायोंको, बछड़ोंको
बेचो मत । बूढ़े बैल और बूढ़ी गायोंकी बिक्री मत करो । उनको कसाइयोंके हाथ मत बेचो । गाय बूढ़ी हो गयी, बछड़ा नहीं देती, दूध नहीं देती, उसको बेच देते हो, फिर घरमें जो बूढ़ी माताएँ हैं,
बूढ़े पिता हैं, उनको क्या करोगे ? सेठ श्रीजयदयालजी गोयन्दका कहा करते थे कि जैसे गायोंके लिये
पिंजरापोल खोलते हैं, ऐसे ही बूढ़ोंके लिये भी पिंजरापोल खोलना पड़ेगा ! कोलायतमें मैंने
अपनी आँखोंसे देखा है कि एक अन्धा और बहरा बूढ़ा घाटके पासमें ही गलीपर बैठा था और
बार-बार ‘भूखाँ मरूँ रे !’ ऐसे कह रहा था । पूछनेपर पता चला कि एक छोटा छोरा उसको यहाँ
लाया और छोड़कर भाग गया ! अब अन्धा और बहरा बूढ़ा बेचारा कहाँ जाय ! यह दशा हो रही है
! कितनी स्वार्थपरता चल पड़ी है !
बम्बईमें
देवनार-कसाईखानेमें मैंने देखा है कि वहाँ अच्छे-अच्छे, जवान-जवान
बैल ट्रकोंमें भरकर लाये जाते हैं और खड़े कर दिये जाते हैं । दूर-दूरतक सींग-ही-सींग
दीखते थे । ऐसे बैलोंको मशीनोंके द्वारा बड़ी बुरी तरहसे मारते हैं । जीते-जी उनका चमड़ा
उतारा जाता है; क्योंकि जीते हुएका चमड़ा उतारा
जाय तो वह बहुत नरम होता है । जो गायों और बैलोंको बेचते
हैं, उनको यह हत्या लगती है !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘किसान और गाय’ पुस्तकसे
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