(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒शास्त्रोंमें गृहस्थपर पाँच ऋण बताये गये हैं‒̶पितृऋण, देवऋण,
ऋषिऋण, भूतऋण और मनुष्यऋण । इनमेंसे पितृऋण क्या है और उससे छूटनेका उपाय क्या है
?
उत्तर‒माता-पिता,
दादा-दादी, परदादा-परदादी, नाना-नानी, परनाना-परनानी आदिके मरनेपर जो कार्य किये
जाते हैं, वे सब ‘प्रेतकार्य’ हैं और परंपरासे
श्राद्ध-तर्पण करना, पिण्ड-पानी देना आदि जो कार्य पितरोंके उद्देश्यसे किये जाते
है, वे सब ‘पितृकार्य’ हैं । मरनेके बाद प्राणी
देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, भूत-प्रेत, वृक्ष-लता आदि किसी भी योनिमें चला जाय तो
उसकी ‘पितर’ संज्ञा होती है ।
माता-पिताके
रज-वीर्यसे शरीर बनता है । माताके दूधसे और पिताके कमाये हुए अन्नसे शरीरका
पालन-पोषण होता है । पिताके धनसे शिक्षा एवं योग्यता प्राप्त होती है ।
माता-पिताके उद्योगसे विवाह होता है । एस तरह पुत्रपर माता-पिताका, माता-पितापर
दादा-दादीका और दादा-दादीपर परदादा-परदादीका ऋण रहता है । परम्परासे रहनेवाले इस पितृऋणसे मुक्त होनेके लिये, पितरोंकी सद्गतिके लिये
उनके नामसे पिण्ड-पानी देना चाहिये । श्राद्ध-तर्पण
करना चाहिये । पुत्र जन्मभर माता-पिता आदिके नामसे पिण्ड-पानी देता
है, पर आगे पिण्ड-पानी देनेके लिये संतान उत्पन्न नहीं करता तो वह पितृऋणसे मुक्त
नहीं होता अर्थात् उसपर पितरोंका ऋण रहता है । परन्तु संतान उत्पन्न होनेपर उसपर
पितृऋण नहीं रहता, प्रत्युत वह पितृऋण संतानपर आ जाता है । पितर पिण्ड-पानी चाहते हैं; अतः
पिण्ड-पानी मिलनेसे वे सुखी रहते हैं और न मिलनेसे वे दुःखी हो जाते हैं । पुत्रकी
संतान न होनेसे भी वे दुःखी हो जाते हैं कि आगे हमें पिण्ड-पानी कौन देगा !
प्रश्न‒क्या पितरोंके नामसे दिया हुआ उनको मिल जाता है ?
उत्तर‒पितरोंके नामसे जो कुछ दिया जाय, वह सब उनको मिल जाता है ।
वे चाहे किसी भी योनिमें क्यों न हों, उनके नामसे दिया हुआ पिण्ड-पानी उनको उसी योनिके अनुसार खाद्य या पेय पदार्थके रूपमें मिल
जाता है । जैसे, पितर पशुयोनिमें हों तो उनके नामसे दिया हुआ अन्न उनको घास
बनकर मिल जायगा और देवयोनिमें हों तो अमृत बनकर मिल जायगा । तात्पर्य है कि जैसी
वस्तुसे उनका निर्वाह होता हो, वैसी वस्तु उनको मिल जाती है । जैसे हम यहाँसे अमेरिकामें
किसीको मनीआर्डरके द्वारा रुपये भेजें तो वे वहाँ डालर बनकर उसको मिल जाते हैं,
ऐसे ही हम पितरोंके नामसे पिण्ड-पानी देते हैं, दान-पुन्य करते हैं, तो वह जिस
योनिमें पितर हैं, उसी योनिके अनुसार खाद्य या पेय पदार्थके रुपमें पितरोंको मिल
जाता है ।
आज हमें बड़े आदरसे जो रोटी-कपड़ा
आदि मिलता है, वह हमारे पूर्वकृत पुण्योंका फल भी हो सकता है और हमारे पूर्वजन्मके
पुत्र-पौत्रदिकोंके द्वारा किये हुए श्राद्ध-तर्पणका फल भी हो सकता है, पर है यह
हमारा प्रारब्ध ही ।
जैसे किसीने बैंकमें एक लाख रुपये
जमा किये । उनमेंसे उसने कुछ अपने नामसे, कुछ पत्नीके नामसे और कुछ पुत्रके नामसे
जमा किये, तो वह अपने नामसे जमा किये हुए पैसे ही निकाल सकता है, अपनी पत्नी और
पुत्रके नामसे जमा किये हुए पैसे नहीं । वे पैसे तो उसकी पत्नी और पुत्रको ही
मिलेंगे । ऐसे ही पितरोंके नामसे जो पिण्ड-पानी दिया जाता है, वह पितरोंको ही
मिलता है, हमें नहीं । हाँ, हम जीते-जी गयामें जाकर अपने नामसे पिण्ड-पानी देंगे
तो मरनेके बाद वह हमें ही मिल जायगा । गयामें तो पशु-पक्षीके नामसे दिया हुआ
पिण्ड-पानी भी उनको मिल जाता है । एक सज्जनका अपनी गायपर बड़ा स्नेह था । वह गाय मर गयी
तो वह उसको स्वप्नमें बहुत दुःखी दिखायी दी । उसने गया में जाकर उस गायके नामसे
पिण्ड-पानी दिया । फिर वह गाय स्वप्नमें दिखायी दी तो वह बहुत प्रसन्न थी ।
जैसे हमारे
पास एक तो अपना कमाया हुआ धन है और एक पिता, दादा, परदादाका कमाया हुआ धन है तो
अपने कमाये हुए धनपर ही हमारा अधिकार है; पिता,दादा आदिके कमाये हुए धनपर हमारा
उतना अधिकार नहीं है । वंश-परम्पराके अनुसार पिता, दादा आदिके धनपर हमारे
पुत्र-पौत्रोंका अधिकार है । ऐसे ही पितरोंको वंश-परम्पराके अनुसार
पुत्र-पौत्रोंका दिया हुआ पिण्ड-पानी मिलता है । अतः पुत्र-पौत्रोंपर पिता, दादा
आदिके पिण्ड-पानी देनेका दायित्व है ।
एक पितृलोक भी है, पर मरनेके बाद सब पितृलोकमें ही जाते
हों‒यह कोई नियम नहीं है । कारण कि अपने-अपने कर्मोंके अनुसार ही सबकी गति होती है
।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
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