(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒अगर कोई साधु-संन्यासी बनकर रुपये इकट्ठा करता है और माता-पिता, स्त्री-पुत्रोंको रुपये भेजता है, उनका पालन-पोषण करता है तो क्या उसको दोष लगेगा ?
उत्तर‒जो
साधु-संन्यासी बनकर माँ-बाप आदिको रुपये भेजते हैं, वे तो पापके भागी हैं ही, पर
जो उनके दिये हुए रुपयोंसे अपना निर्वाह करते हैं, वे भी पापके भागी हैं; क्योंकि
वे दोनों ही शास्त्र-आज्ञाके विरुद्ध काम करते हैं । माता-पिताकी सेवा तो
गृहस्थाश्रममें ही रहकर करते, पर वे अवैध काम करके संन्यास-आश्रमको दूषित करते हैं
तो उनको पाप लगेगा ही । वे पापसे बच नहीं सकते !
प्रश्न‒अगर घरमें माँका पालन करनेवाला, सँभालनेवाला कोई न रहा हो तो उस अवस्थामें
साधु-संन्यासी बना हुआ लड़का माँका पालन कर सकता है या नहीं ?
उत्तर‒माँका कोई आधार
न रहे तो साधु बननेपर भी वह माँका पालन कर सकता है और पालन करना ही चाहिये । असमर्थ
अवस्थामें तो दूसरे प्राणियोंकी भी सेवा करनी चाहिये, फिर माँ तो शरीरकी
जननी है ! वह अगर असमर्थ अवस्थामें है तो उसकी सेवा करनेमें कोई दोष नहीं है ।
प्रश्न‒पुत्री (कन्या) तो पतिके घर चली जाती है, तो फिर वह माँ-बापकी सेवा कैसे कर सकती
है और सेवा किये बिना माँ-बापका ऋण माफ कैसे हो सकता है ?
उत्तर‒जैसे, किसीपर
इतना अधिक ऋण हो जाय कि उसको चुकानेकी मनमें होनेपर भी वह चुका न सके तो वह ऋणदाताके
पास जाकर कह दे कि मैं और मेरे स्त्री-पुत्र, घर, जमीन आदि सब आपके
समर्पित हैं;
अब आप इनका जैसा
उपयोग करना चाहें, वैसा कर सकते हैं । ऐसा करनेसे उसपर ऋण नहीं रहता, ऋण माफ हो जाता
है । इसी तरह कन्या बचपनसे ही माता-पिताके समर्पित रहती है । वह अपने मनकी कुछ भी नहीं
रखती । माता-पिता जहाँ उसका सम्बन्ध (विवाह) करा देते हैं, वह
प्रसन्नतापूर्वक वहीं चली जाती है । वह अपने गोत्रको भी पतिके गोत्रमें मिला देती
है । जिसने ऐसा त्याग किया है, उसपर माता-पिताका ऋण कैसे रह सकता है ? नहीं रह
सकता ।
प्रश्न‒माँ-बापका कोई सहारा न रहे तो ऐसी अवस्थामें विवाहित पुत्री माँ-बापका पालन कर
सकती है या नहीं ?
उत्तर‒वह असहाय माँ-बापकी
सेवा कर सकती है । यदि विवाहित पुत्रीकी सन्तान है तो माँ-बाप उसके घरका अन्न-जल
ले सकते हैं, उसके घरपर रह सकते हैं । परन्तु यदि उसकी कोई सन्तान नहीं है तो माँ-बापको
उसके घरका अन्न-जल लेनेका अधिकार नहीं है ।
माता-पिताने कन्याका
दान (विवाह) कर दिया तो अब वे उसके घरका अन्न नहीं ले सकते; क्योंकि दान दी
हुई वस्तुपर दाताका अधिकार नहीं रहता । परन्तु कन्यासे सन्तान (पुत्र या पुत्री) होनेपर
माता-पिता कन्याके यहाँका अन्न ले सकते हैं । कारण यह है कि कन्याके पति (दामाद)-ने
केवल पितृऋणसे मुक्त होनेके लिये ही दूसरेकी कन्या स्वीकार की है और उससे सन्तान होनेपर
वह पितृऋणसे मुक्त हो जाता है । अतः सन्तान होनेपर माता-पिताका
कन्यापर अधिकार हो जाता है, तभी तो गोत्र न होनेपर भी दौहित्र अपने नाना-नानीका श्राद्ध-तर्पण
कर सकता है ।
यदि माता-पिता
असहाय अवस्थामें हों तथा उनकी सेवा करनेवाला कोई न हो तो उनकी सेवा करनेकी जिम्मेवारी
पुत्रीपर ही है । अतः अपनी सन्तान न होनेपर भी विवाहित पुत्रीको उनकी सेवा करनी चाहिये
। दूसरी बात,
वर्तमान कानूनमें
पिताकी सम्पत्तिमें पुत्र और पुत्रीका समान अधिकार माना गया है । अतः वर्तमान कानूनकी
दृष्टिसे भी देखा जाय तो जब पुत्रीको सम्पत्ति देनेका अधिकार है तो फिर उससे सेवा लेनेका
भी माता-पिताको अधिकार है !
नारायण
! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘गृहस्थमें
कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
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