(गत ब्लॉगसे
आगेका)
गोस्वामी तुलसीदासजीने
कहा है‒
अनुचित उचित बिचारू
तजि जे पालहिं पितु बैन ।
ते
भाजन सुख सुजस के बसहिं
अमरपति ऐन ॥
तात्पर्य
है कि पुत्रको श्रीरामकी तरह अपना आचरण बनाना चाहिये और यह सोचना चाहिये कि इस परिस्थितिमें, इस
अवस्थामें, इस समय मेरी जगह श्रीराम होते तो क्या
करते । इस तरह उनका ध्यान करके काम करना चाहिये ।
पुत्र माता-पिताकी
कितनी ही सेवा करे तो भी वह माता-पिताके ऋणको चुका नहीं सकता । कारण कि जिस मनुष्य-शरीरसे
अपना कल्याण हो सकता है, जीवन्मुक्ति मिल सकती है, भगवत्प्रेम प्राप्त
हो सकता है,
भगवान्का मुकुटमणि
बन जाय‒इतना ऊँचा पद प्राप्त हो सकता है, वह मनुष्य-शरीर हमें माता-पिताने दिया है
। उसका बदला पुत्र कैसे चुका सकता है ? नहीं चुका सकता ।
प्रश्न‒माता-पिताकी सेवाका तात्पर्य क्या है ?
उत्तर‒माता-पिताकी सेवाका
तात्पर्य कृतज्ञतामें है । माता-पिताने बच्चेके लिये जो कष्ट सहे हैं उसका पुत्रपर
ऋण है । उस ऋणको पुत्र कभी उतार नहीं सकता । माँने पुत्रकी जितनी सेवा की है, उतनी सेवा पुत्र
कर ही नहीं सकता । अगर कोई पुत्र यह कहता है कि मैं अपनी चमड़ीसे माँके लिये जूती बना
दूँ तो उससे हम पूछते हैं कि यह चमड़ी तुम कहाँसे लाये ? यह भी तो माँने
ही दी है ! उसी चमड़ीकी जूती बनाकर माँको दे दी तो कौन-सा बड़ा काम किया ? केवल देनेका अभिमान
ही किया है ! ऐसे ही शरीर खास पिताका अंश है । पिताके उद्योगसे ही पुत्र पढ़-लिखकर योग्य
बनता है, उसको रोटी-कपड़ा
मिलता है । इसका बदला कैसे चुकाया जा सकता है ! अतः केवल
माता-पिताकी सेवा करनेसे, उनकी प्रसन्नता
लेनेसे वह ऋण अदा तो नहीं होता, पर माफ हो जाता
है ।
प्रश्न‒मेरा ऐसा पुत्र हो जाय, उसका कल्याण हो जाय‒इस उद्देश्यसे माँ-बापने
थोड़े ही संग किया ! उन्होंने तो अपने सुखके लिये संग किया । हम पैदा हो गये तो हमारेपर
उनका ऋण कैसे ?
उत्तर‒केवल सुखासक्तिसे
संग करनेवाले स्त्री-पुरुषके प्रायः श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न नहीं होते । जो स्त्री-पुरुष
शास्त्रके आज्ञानुसार केवल पितृ-ऋणसे मुक्त होनेके लिये ही सन्तान उत्पन्न करते हैं, अपने सुखका उद्देश्य
नहीं रखते,
वे ही असली माता-पिता
हैं । परन्तु पुत्रके लिये तो कैसे हों, किसी
भी तरहके माता-पिता हों, वे पूज्य ही हैं; क्योंकि
उन्होंने मानव-शरीर देकर पुत्रको परमात्मप्राप्तिका अधिकारी बना दिया ! उपनिषदोंमें
आता है कि विद्यार्थी जब विद्या पढ़कर, स्नातक होकर गृहस्थमें प्रवेश
करनेके लिये गुरुजीसे आज्ञा लेता, तब गुरुजी उसको आज्ञा देते कि
‘मातृदेवो भव, पितृदेवो
भव’ अर्थात् तुम माता-पिताको
साक्षात् ईश्वररूप मानकर उनकी आज्ञाका पालन करो; उनकी सेवा करो । यह ऋषियोंकी
दीक्षान्त शिक्षा है और इसके पालनमें ही हमारा कल्याण है । अतः पुत्रको जिनसे शरीर
मिला है, उनका कृतज्ञ होना
ही चाहिये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गृहस्थमें
कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
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