(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒जो
मनुष्य नामजप तो करता है, पर
उसके द्वारा निषिद्ध-कर्म भी होते हैं, उसका
उद्धार होगा या नहीं ?
उत्तर‒समय पाकर उसका उद्धार तो होगा ही; क्योंकि किसी भी तरहसे लिया हुआ भगवन्नाम निष्फल नहीं जाता ।
परन्तु नामजपका जो प्रत्यक्ष प्रभाव है, वह उसके देखनेमें नहीं आयेगा । वास्तवमें देखा जाय तो जिसका
एक परमात्माको ही प्राप्त करनेका ध्येय नहीं है,
उसीके द्वारा निषिद्ध कर्म होते हैं । जिसका ध्येय एक परमात्मप्राप्तिका ही है, उसके
द्वारा निषिद्ध कर्म हो ही नहीं सकते । जैसे, जिसका ध्येय पैसोंका हो जाता है,
वह फिर ऐसा कोई काम नहीं करता,
जिससे पैसे नष्ट होते हों । वह पैसोंका नुकसान नहीं सह सकता;
और कभी किसी कारणवश पैसे नष्ट हो जायँ तो वह बेचैन हो जाता है
। ऐसे ही जिसका ध्येय परमात्मप्राप्तिका बन जाता है,
वह फिर साधनसे विपरीत काम नहीं कर सकता । अगर उसके द्वारा साधनसे
विपरीत कर्म होते हैं तो इससे सिद्ध होता है कि अभी उसका ध्येय परमात्मप्राप्ति नहीं
बना है ।
साधकको चाहिये कि वह परमात्मप्राप्तिका ध्येय दृढ़
बनाये और नाम-जप करता रहे तो फिर उससे निषिद्ध क्रिया नहीं होगी । कभी निषिद्ध क्रिया
हो भी जायगी तो उसका बहुत पश्चात्ताप होगा, जिससे
वह फिर आगे कभी नहीं होगी ।
प्रश्र‒जिसके
पाप बहुत है, वह भगवान्का नाम
नहीं ले सकता; अतः वह क्या करे
?
उत्तर‒बात सच्ची है । जिसके अधिक पाप होते हैं,
वह भगवान्का नाम नहीं ले सकता ।
वैष्णवे भगवद्द्भक्तौ प्रसादे हरिनाम्नि च ।
अल्पपुण्यवतां श्रद्धा यथावन्नैव जायते ॥
अर्थात् जिसका पुण्य थोड़ा होता है, उसकी भक्तोंमें, भक्तिमें, भगवत्प्रसादमें और भगवन्नाममें श्रद्धा नहीं होती ।
जैसे पित्तका जोर होनेपर रोगीको मिश्री भी कड़वी लगती है । परन्तु
यदि वह मिश्रीका सेवन करता रहे तो पित्त शान्त हो जाता है और मिश्री मीठी लगने लग जाती
है । ऐसे ही पाप अधिक होनेसे नाम अच्छा नहीं लगता; परन्तु
नामजप करना शुरू कर दें तो पाप नष्ट हो जायँगे और नाम अच्छा, मीठा
लगने लग जायगा तथा नामजपका प्रत्यक्ष लाभ भी दीखने लग जायगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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