(गत ब्लॉगसे आगेका)
सन्तोंने कहा है‒
के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि
तान्येव
मित्राणि जितानि यानि ।
(प्रश्रोत्तरी ४)
अर्थात् मनुष्य इन्द्रियोंके वशमें हो जाता है तो वे इन्द्रियाँ
उसकी शत्रु बन जाती हैं, जिससे उसके लोक-परलोक बिगड़ जाते हैं । परंतु वह इन्द्रियोंको
जीत लेता है तो वे इन्द्रियाँ उसकी मित्र बन जाती हैं,
जिससे उसके लोक-परलोक सुधर जाते हैं । इसलिये गीताने कहा है‒
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
(६ । ५)
‘अपने द्वारा अपना उद्धार करे,
अपना पतन न करे, क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ।’
प्रश्न‒गर्भपात
करनेसे क्या हानि है ?
उत्तर‒गर्भपातसे तो हानि-ही-हानि
है । कृत्रिम गर्भस्राव, गर्भपात करानेसे स्त्रीका शरीर खराब हो जाता है, कमजोर हो जाता
है । जवानी अवस्थामें भले ही कमजोरीका पता न लगे,
पर थोड़ी अवस्था ढलनेपर इसका पता लगने लगेगा । जबतक शरीरमें खून
बनता है, तबतक कमजोरीका पूरा पता नहीं लगता,
पर खून बनना कम होनेपर कमजोरीका पता लगता ही है । गर्भपातसे
बहुतोंको प्रदर हो जाता है । इसके सिवाय गर्भपातसे खून गिरनेका एक रास्ता खुल जाता
है ।
बच्चा पैदा होनेसे स्त्रीका शरीर खराब नहीं होता;
क्योंकि बच्चा पैदा होना प्राकृत है और वह समयपर होता है । तात्पर्य है कि प्राकृत चीजोंसे स्वाभाविक ही खराबी पैदा नहीं होती, खराबी
तो कृत्रिम चीजोंसे ही होती है ।
प्रश्न‒एक-दो
बार सन्तान होनेसे स्त्री माँ बन ही गयी, अब
वह नसबन्दी ऑपरेशन करवा ले तो क्या हर्ज है ?
उत्तर‒वह माँ तो पहले
थी, अब तो नसबन्दी ऑपरेशन करवा लेनेपर उसकी ‘स्त्री’
संज्ञा ही नहीं रही । कारण कि शुक्र-शोणित मिलकर जिसके उदरमें
गर्भका रूप धारण करते हैं, उसका नाम स्त्री है[*]
। जो गर्भ धारण न कर सके, उसका
नाम स्त्री नहीं है; और जो गर्भ-स्थापन न कर सके, उसका
नाम पुरुष नहीं है । ऑपरेशनके
द्वारा सन्तानोत्पत्ति करनेकी शक्ति नष्ट करनेपर पुरुषका नाम तो हिंजडा होगा,
पर स्त्रीका क्या नाम होगा‒इसका हमें पता नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
(सिद्धान्तकौमुदी, बालमनोरमा)
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