(गत ब्लॉगसे आगेका)
भूत-प्रेत मनुष्यकी आयु रहते हुए उसको मार नहीं सकते । उसकी
आयु समाप्त होनेपर ही वे उसको मार सकते हैं । इस विषयमें हमने एक बात सुनी हैं । लगभग
सौ वर्ष पुरानी राजस्थानकी घटना है । कुछ मुसलमान गायोंको कसाईखाने ले जा रहे थे ।
वहाँके राजाको इसकी खबर मिली तो उसने अपने सिपाहियोंको भेजा । सिपाहियोंने उन मुसलमानोंको
मारकर गायें छुड़ा लीं । उनमेंसे एक मुसलमान मरकर जिन्न बन गया और वह राजाके पीछे लग
गया । राजाने बहुत उपाय किये, पर उसने छोड़ा नहीं । जिन्न
कहता कि मैं एक आदमीकी बलि लेकर ही जाऊँगा । आखिर एक ठाकुरने कहा कि मैं अपनी बलि देनेके
लिये तैयार हूँ । जिन्नने राजाको छोड़ दिया और तुरन्त उस ठाकुरको मार दिया । ठाकुरके
इच्छानुसार उसके शवको (श्मशान-भूमिमें ले जानेंसे पहले) उसके गुरुके पास ले जाया गया
। जब लोग ठाकुरके शवको उसके गुरुके चारों तरफ घुमाकर (परिक्रमा दिलाकर) ले जाने लगे,
तब गुरुके पास बैठे एक दूसरे सन्तने कहा कि शव खाली जा रहा है,
कुछ देना चाहिये । गुरु बोले कि कुछ कर नहीं सकते,
इसकी आयु पूरी हो गयी है । फिर विचार करके दोनों सन्तोंने अपनी
आयुमेंसे बारह वर्षकी आयु देकर ठाकुरको जीवित कर दिया । तात्पर्य है कि राजाकी आयु
पूरी नहीं हुई थी, इसलिये जिन्न उसको मार नहीं सका । परन्तु ठाकुरकी आयु पूरी हो
चुकी थी; अतः जिन्नने उसको मार दिया ।
प्रश्र‒मृगीरोगवाले
और प्रेतबाधावाले मनुष्योंके लक्षण प्रायः एक समान दीखते हैं; अतः
उन दोंनोंकी अलग-अलग पहचान कैसे हो ?
उत्तर‒मृगीरोगवाले व्यक्तिको तो मूर्च्छा होतो है,
पर प्रेतबाधावाले व्यक्तिको प्रायः मूर्च्छा नहीं होती,
वह कुछ-न-कुछ बकता रहता है । मृगीरोगवाले व्यक्तिमें तो एक ही
जीवात्मा रहती है, पर प्रेतबाधावाले व्यक्तिमें जीवात्माके साथ प्रेतात्मा भी रहती
है, जो उस व्यक्तिको कई तरहसे दुःख देती है,
तंग करती है । मृगीरोगवाला व्यक्ति तो दवासे ठीक हो जाता है,
प्रेतबाधावाला व्यक्ति दवासे ठीक नहीं होता ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे |