अशुद्ध प्रकृतिवाले संसारी मनुष्योंको संसारमें ही सुख दीखता
है । संसारके सुखसे बढ़कर भी कोई पारमार्थिक सुख है‒इस बातको वे बिलकुल भी नहीं जानते
। ऐसे आसुरी स्वभाववाले मनुष्य सांसारिक भोगोंको लेकर कहते हैं कि जो कुछ है,
बस, इतना ही है‒‘कामोपभोगपरमा एतावदिति
निश्रिताः’ (गीता
१६ । ११), ‘नान्यदस्तीति वादिनः’ (गीता
२ । ४२) । परन्तु शुद्ध
प्रकृतिवाले पारमार्थिक साधकोंको परमात्मामें ही सुख दीखता है और उस सुखसे बढ़कर भी
कोई सुख है‒ऐसा उनके माननेमें ही नहीं आता‒‘यं लब्ध्वा चापरं
लाभं मन्यते नाधिक ततः’ (गीता ६ । २२) ।
संसारी मनुष्य और साधक‒दोनोंमें फर्क यह है कि संसारी मनुष्य
पारमार्थिक सुखको जानते ही नहीं, जबकि साधक
पारमार्थिक सुखके साथ-साथ सांसारिक सुखको भी जानते हैं । जैसे,
बालक केवल बालकपनेको ही देखता है,
जवानी तथा बुढ़ापेका उसको अनुभव नहीं है । बालकसे भी जवान ज्यादा
जानता है; क्योंकि उसने बालकपनेका भी अनुभव किया है और जवानीका भी । इसलिये
बालक उसको ठगना चाहे तो वह उसकी ठगाईमें नहीं आता । जवानसे भी बूढ़ा ज्यादा जानता है,
क्योंकि उसने बालकपना,
जवानी और बुढ़ापा‒तीनोंका अनुभव किया है । मनुष्य जिस विषयको
नहीं जानता, उस विषयमें वह बालक कहलाता है[*] । कारण कि बालक नाम अनजान (बेसमझ) का है और अनजान होनेसे ही
उसको शिक्षा दी जाती है । इस दृष्टिसे संसारमें रचे-पचे लोग बालक हैं । उनसे साधक ज्यादा
जानता है और साधकसे भी सिद्ध, तत्त्वज्ञ महात्मा ज्यादा जानता है । तत्वज्ञ महात्मा ही वास्तवमें
पूर्ण जानकार होता है[†];
क्योंकि पहले वह साधारण मनुष्योंमें रहा,
फिर उसने अनेक ग्रन्थोंका अध्ययन किया,
सत्संग किया, साधन किया और फिर तत्त्वका अनुभव किया । इस प्रकार वह आरम्भसे
अन्ततक सबको पूरा जानता है । वह संसारको भी पूरा जानता है और परमात्मतत्वको भी[‡]
।
शेष आगेके ब्लॉगमें
‒‘देशकी वर्तमान दशा तथा उसका परिणाम’ पुस्तकसे
‘बालक अर्थात् बेसमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोगको
अलग-अलग फलवाले कहते हैं, न कि पण्डितजन ।’
यो मामेवमसम्मूढो
जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां
सर्वभावेन भारत ॥ (गीता
१५ । १९)
‘हे भरतवंशी अर्जुन ! इस प्रकार जो मोहरहित मनुष्य
मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ सब प्रकारसे मेरा ही भजन करता है ।’
यस्यां जाग्रति भूतानि
सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ (गीता २ । ६९)
‘सम्पूर्ण मनुष्योंकी जो रात (परमात्मासे विमुखता)
है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें साधारण मनुष्य जागते हैं (भोगोंमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है ।’
|