(गत ब्लॉगसे आगेका)
(१) तुम्हारे
परवरदिगारका हुक्म है कि उसके सिवाय किसीकी इबादत न करो और माता-पिताके साथ अच्छा सलूक
करो । अगर (माता-पितामेंसे) एक या दोनों तुम्हारे सामने बुढ़ापेको पहुँच जायँ तो उनके
आगे (जवाबदेहीमें) ‘हूँ’ भी मत करना और न उनको झिड़कना और (उनके साथ) अदबके साथ बोलना
और प्यारसे आजिजी (विनम्रता)-के साथ उनके सामने बाजू झुकाये रखना और दुआ करते रहना
कि ए मेरे परवरदिगार ! जिस तरह उन्होंने मुझे छोटे-से पाला है, उसी तरह तू भी इनपर (अपनी) कृपा कर ( १५ । १७ । २३-२४) ।
(२) हमने आदमीको
माता-पिताके साथ भलाई करनेकी ताकीद की है कि उसकी माताने उसको पेटमें रखा तकलीफ
उठाकर और उसक जना तकलीफ उठाकर (२६ । ४६ ।१५)
बड़े खेदकी बात है कि वर्तमानमें स्त्रीके
भोग्यारूपको ही महत्त्व दिया जा रहा है और सन्तति-निरोध, गर्भपात आदि उपायोंसे तथा
विज्ञापनोंसे स्त्रीके मातृरूपका तिरस्कार किया जा रहा है । वृद्धावस्था आनेपर स्त्रीका
भोग्यारूप तो नष्ट हो जाता है, पर मातृरूप सदा आदरणीय रहता है । आश्चर्यकी बात है कि
वर्तमानमें स्त्रियाँ भी भोग्या बनना चाहती हैं, माता नहीं ! आजकल स्त्री-पुरुषके समान अधिकारकी बात की जाती
है; परन्तु भोग्या स्त्री कभी पुरुषके समान अधिकार नहीं
पा सकती । हाँ, मातृरूपसे वह पुरुषसे भी ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकती है । इसलिये भोग्या स्त्रीके लिये कहा गया है‒
द्वारं किमेकं
नरकस्य नारी’ (प्रश्नोत्तरी ३)
‘नरकका प्रधान द्वार क्या है ? नारी ।’
और मातृरूपके लिये कहा गया है‒
‘मातृदेवो
भव’ (तैत्तिरीय॰ १ । ११)
‘माताको देवरूप समझो ।’
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
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