अपने लिये सुख चाहनेसे नाशवान् सुख मिलता है और दूसरोंको सुख
पहुँचानेसे अविनाशी सुख मिलता है ।
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सुख भोगनेके लिये स्वर्ग है तथा दुःख भोगनेके लिये नरक है और
सुख-दुःख दोनोंसे ऊँचे उठकर महान् आनन्द प्राप्त करनेके लिये यह मनुष्यलोक है ।
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संसारके सम्बन्ध-विच्छेदसे जो सुख मिलता है,
वह संसारके सम्बन्धसे कभी मिल सकता ही नहीं ।
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जबतक नाशवान्का सुख लेते रहेंगे,
तबतक अविनाशी सुखकी प्राप्ति नहीं होगी ।
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भोगोंका नाशवान् सुख तो नीरसतामें बदल जाता है और उसका अन्त
हो जाता है, पर परमात्माका अविनाशी सुख सदा सरस रहता है और बढ़ता ही रहता
है ।
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अभिमान
अच्छाईका अभिमान बुराईकी जड़ है ।
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स्वार्थ और अभिमानका त्याग करनेसे साधुता आती है ।
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अपनी बुद्धिका अभिमान ही शास्त्रोंकी,
सन्तोंकी बातोंको अन्तःकरणमें टिकने नहीं देता ।
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वर्ण, आश्रम आदिकी जो विशेषता है,
वह दूसरोंकी सेवा करनेके लिये है,
अभिमान करनेके लिये नहीं ।
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आप अपनी अच्छाईका जितना अभिमान करोगे,
उतनी ही बुराई पैदा होगी । इसलिये अच्छे बनो,
पर अच्छाईका अभिमान मत करो ।
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ज्ञान मुक्त करता है, पर ज्ञानका अभिमान नरकोंमें ले जाता है
।
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सांसारिक वस्तुके
मिलनेपर तो अभिमान आ सकता है, पर भगवान्के मिलनेपर अभिमान आ सकता ही नहीं,
प्रत्युत अभिमानका सर्वथा नाश हो जाता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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