स्वार्थ और अभिमानका त्याग किये बिना मनुष्य श्रेष्ठ नहीं बन
सकता ।
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जहाँ जातिका अभिमान होता है, वहाँ भक्ति होनी बड़ी कठिन है;
क्योंकि भक्ति स्वयंसे होती है,
शरीरसे नहीं । परन्तु जाति शरीरकी होती है,
स्वयंकी नहीं ।
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जबतक स्वार्थ और अभिमान हैं,
तबतक किसीके भी साथ प्रेम नहीं हो सकता ।
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अभिमानी आदमीसे सेवा तो कम होती है,
पर उसको पता लगता है कि मैंने ज्यादा सेवा की । परन्तु निरभिमानी
आदमीको पता तो कम लगता है, पर सेवा ज्यादा होती है ।
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बुद्धिमानीका अभिमान मूर्खतासे पैदा होता है ।
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जो चीज अपनी है, उसका अभिमान नहीं होता और जो चीज अपनी नहीं है,
उसका भी अभिमान नहीं होता । अभिमान उस चीजका होता है,
जो अपनी नहीं है, पर उसको अपनी मान लिया ।
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जितना जानते हैं, उसीको पूरा मानकर जानकारीका अभिमान करनेसे मनुष्य ‘नास्तिक’
बन जाता है । जितना जानते हैं,
उसमें सन्तोष न करनेसे तथा जानकारीका अभाव खटकनेसे मनुष्य ‘जिज्ञासु’
बन जाता है ।
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जिन सम्प्रदाय, मत, सिद्धान्त, ग्रन्थ, व्यक्ति आदिमें अपने स्वार्थ और अभिमानके त्यागकी मुख्यता रहती
है, वे महान् श्रेष्ठ होते हैं । परन्तु जिनमें अपने स्वार्थ और अभिमानकी मुख्यता रहती
है, वे महान् निकृष्ट होते हैं ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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