(गत ब्लॉगसे आगेका)
मैं-पन ही मात्र संसारका बीज है ।
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शरीरको मैं-मेरा माननेसे तरह-तरहके और अनन्त दुःख आते हैं ।
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एक अहम्के त्यागसे अनन्त सृष्टिका त्याग हो जाता है;
क्योंकि अहम्ने ही सम्पूर्ण जगत्को धारण कर रखा है ।
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‘मैं बन्धनमें हूँ’‒इसमें जो ‘मैं’ है, वही ‘मैं मुक्त हूँ’ अथवा ‘मैं ब्रह्म हूँ’‒इसमें भी है ! इस ‘मैं’
(अहम्) का मिटना ही वास्तवमें
मुक्ति है ।
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जगत्, जीव और परमात्मा‒ये तीनों एक ही हैं,
पर अहंताके कारण ये तीन दीखते हैं ।
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वास्तवमें असंगता शरीरसे ही होनी चाहिये । समाजसे असंगता होनेपर
अहंता (व्यक्तित्व) मिटती नहीं, प्रत्युत दृढ़ होती है ।
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हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं है‒यह
बात यदि समझमें आ जाय तो इसी क्षण जीवन्मुक्ति है ।
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संघर्ष जाति या धर्मको लेकर नहीं होता,
प्रत्युत अहंकारसे पैदा होनेवाले स्वार्थ और अभिमानको लेकर होता
है ।
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अपनेमें विशेषता देखना अहंताको,
परिच्छिन्नताको, देहाभिमानको पुष्ट करता है ।
भगवान्से उत्पन्न हुई सृष्टि भगवद्रूप ही है,
पर जीव अहंता, आसक्ति, रागके कारण उसको जगद्रूप बना लेता है ।
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उद्देश्य
जिसके लिये मनुष्यजन्म मिला है, उस परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य
हो जानेपर मनुष्यको सांसारिक सिद्धि-असिद्धि बाधा नहीं दे सकती ।
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जैसे रोगीका उद्देश्य नीरोग होना है,
ऐसे ही मनुष्यका उद्देश्य अपना कल्याण करना है । सांसारिक सिद्धि-असिद्धिको
महत्त्व न देनेसे अर्थात् उनमें सम रहनेसे ही उद्देश्यकी सिद्धि होती है ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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