(गत ब्लॉगसे आगेका)
जब साधकका एकमात्र उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका हो जाता है,
तब उसके पास जो भी सामग्री (वस्तु परिस्थिति आदि) होती है,
वह सब साधनरूप (साधन-सामग्री) हो जाती है ।
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एक परमात्मप्राप्तिका दृढ़ उद्देश्य होनेसे अन्तःकरणकी जितनी
शीघ्र और जैसी शुद्धि होती है, उतनी शीघ्र और वैसी शुद्धि अन्य किसी अनुष्ठानसे नहीं होती ।
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इन्द्रियोंके द्वारा भोग तो पशु भी भोगते हैं,
पर उन भोगोंको भोगना मनुष्य-जीवनका उद्देश्य नहीं है । मनुष्य-जीवनका
उद्देश्य तो सुख-दुःखसे रहित तत्त्वको प्राप्त करना है ।
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कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग आदि सभी साधनोंमें एक दृढ़ निश्चय या उद्देश्यकी बड़ी
आवश्यकता है । यदि अपने कल्याणका उद्देश्य ही दृढ़ नहीं होगा तो साधनसे सिद्धि कैसे
मिलेगी ?
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एक परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेपर कोई भी साधन छोटा-बड़ा
नहीं होता ।
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वास्तवमें परमात्मप्राप्तिके सिवाय मनुष्य-जीवनका अन्य कोई प्रयोजन
है ही नहीं । आवश्यकता केवल इस प्रयोजन या उद्देश्यको पहचानकर इसे पूरा करनेकी है ।
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उद्देश्य मनुष्यकी प्रतिष्ठा है । जिसका कोई उद्देश्य नहीं है,
वह वास्तवमें मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है ।
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उन्नति
जो वस्तु, परिस्थिति आदि अभी नहीं है,
उसको प्राप्त करनेमें अपनी उन्नति,
सफलता या चतुराई मानना महान् मूल है । जो वस्तु अभी नहीं है,
वह मिलनेके बाद भी सदा नहीं रहेगी‒यह नियम है । जो सदासे है
और सदा रहेगी, ऐसी वस्तु (परमात्मतत्त्व) को प्राप्त करनेमें हो वास्तविक उन्नति,
सफलता या चतुराई है ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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