(गत ब्लॉगसे आगेका)
साधकका न तो जन-समुदायमें राग
होना चाहिये, न एकान्तमें । कल्याण परिस्थितिसे नहीं होता,
प्रत्युत रागरहित होनेसे होता है ।
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निर्जन-स्थानमें चले जानेको अथवा अकेले पड़े रहनेको एकान्त मान
लेना भूल है; क्योंकि सम्पूर्ण संसारका बीज यह शरीर तो साथमें है ही । जबतक
शरीरके साथ सम्बन्ध है, तबतक सम्पूर्ण संसारके साथ सम्बन्ध बना हुआ है ।
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शरीर भी संसारका ही एक अंग है । अतः शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद
होना अर्थात् उसमें अहंता-ममता न रहना ही वास्तविक एकान्त है ।
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साधकमें एकान्त-सेवनकी रुचि होनी तो बढ़िया है,
पर उसका आग्रह (राग) होना बढ़िया नहीं है । आग्रह होनेसे एकान्त
न मिलनेपर अन्तःकरणमें हलचल होगी, जिससे संसारकी महत्ता दृढ़ होगी ।
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कर्तव्य
मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें अपने कर्तव्यका पालन कर सकता है
। कर्तव्यका यथार्थ स्वरूप है‒सेवा अर्थात् संसारसे मिले हुए शरीरादि पदार्थोंको संसारके
हितमें लगाना ।
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अपने कर्तव्यका पालन करनेवाले मनुष्यके चित्तमें स्वाभाविक प्रसन्नता
रहती है । इसके विपरीत अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यके चित्तमें स्वाभाविक
खिन्नता रहती है ।
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साधक आसक्तिरहित तभी हो सकता है,
जब वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको ‘मेरी’
अथवा ‘मेरे लिये’ न मानकर, केवल संसारकी और संसारके लिये ही मानकर संसारके हितके लिये तत्परतापूर्वक
कर्तव्य-कर्मका आचरण करनेमें लग जाय ।
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वर्तमान समयमें घरोंमें,
समाजमें जो अशान्ति,
कलह, संघर्ष देखनेमें आ रहा है,
उसमें मूल कारण यही है कि लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते हैं,
पर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करते ।
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कोई भी कर्तव्य-कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता । छोटे-से-छोटा और
बडे-से-बड़ा कर्म कर्तव्यमात्र समझकर (सेवाभावसे) करनेपर समान ही है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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