(गत ब्लॉगसे आगेका)
जिससे दूसरोंका हित होता है,
वही कर्तव्य होता है । जिससे किसीका भी अहित होता है,
वह अकर्तव्य होता है ।
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राग-द्वेषके कारण ही मनुष्यको कर्तव्य-पालनमें परिश्रम या कठिनाई
प्रतीत होती है ।
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जिसे करना चाहिये और जिसे कर सकते हैं, उसका नाम ‘कर्तव्य’
है । कर्तव्यका पालन न करना प्रमाद है, प्रमाद तमोगुण है और
तमोगुण नरक है‒‘नरकस्तमउन्नाहः’
(श्रीमद्भा॰ ११ । १९ । ४३) ।
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अपने सुखके लिये किये गये कर्म ‘असत्’
और दूसरेके हितके लिये किये गये कर्म ‘सत्’
होते हैं । असत्-कर्मका परिणाम जन्म-मरणकी प्राप्ति और सत्-कर्मका
परिणाम परमात्माकी प्राप्ति है ।
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अच्छे-से-अच्छा कार्य करो,
पर संसारको स्थायी मानकर मत करो ।
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जो निष्काम होता है,
वही तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन कर सकता है ।
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दूसरोंकी तरफ देखनेवाला कभी कर्तव्यनिष्ठ हो ही नहीं सकता,
क्योंकि दूसरोंका कर्तव्य देखना ही अकर्तव्य है ।
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गृहस्थ हो अथवा साधु हो,
जो अपने कर्तव्यका ठीक पालन करता है,
वही श्रेष्ठ है ।
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अपने लिये कर्म करनेसे अकर्तव्यकी उत्पत्ति होती है ।
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अपने कर्तव्य (धर्म) का ठीक पालन करनेसे वैराग्य हो जाता है‒‘धर्म तें बिरति’ (मानस
३ । १६ । १) । यदि वैराग्य
न हो तो समझना चाहिये कि हमने अपने कर्तव्यका ठीक पालन नहीं किया ।
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अपने कर्तव्यका ज्ञान हमारेमें मौजूद है । परन्तु कामना और ममता
होनेके कारण हम अपने कर्तव्यका निर्णय नहीं कर पाते ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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