(गत ब्लॉगसे आगेका)
चारों वर्णों और आश्रमोंमें श्रेष्ठ व्यक्ति वही है,
जो अपने कर्तव्यका पालन करता है । जो कर्तव्यच्युत होता है,
वह छोटा हो जाता है ।
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संसारके सभी सम्बन्ध अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये ही हैं,
न कि अधिकार जमानेके लिये । सुख देनेके लिये हैं,
न कि सुख लेनेके लिये ।
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एकमात्र अपने कल्याणका उद्देश्य होगा तो शास्त्र पढ़े बिना भी
अपने कर्तव्यका ज्ञान हो जायगा । परन्तु अपने कल्याणका उद्देश्य न हो तो शास्त्र पढ़नेपर
भी कर्तव्यका ज्ञान नहीं होगा, उल्टे अज्ञान बढ़ेगा कि हम जानते हैं !
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कल्याण
मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिये और मुझे अपने लिये कुछ नहीं करना है‒ये
तीन बातें शीघ्र उद्धार करनेवाली हैं ।
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भगवान्का संकल्प हमारे कल्याणके लिये है । अगर हम अपना कोई
संकल्प न रखें तो भगवान्के संकल्पके अनुसार अपने-आप हमारा कल्याण हो जायगा ।
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संसारमें ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं है,
जिसमें मनुष्यका कल्याण न हो सकता हो । कारण कि परमात्मा प्रत्येक
परिस्थितिमें समानरूपसे विद्यमान हैं ।
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कल्याणकी प्राप्ति बहुत सुगम है,
पर कल्याणकी इच्छा ही नहीं हो तो वह सुगमता किस कामकी ?
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संसारका काम तो और कोई भी कर लेगा,
पर अपने कल्याणका काम तो खुदको ही करना पडेगा;
जैसे‒भोजन और दवाई खुदको ही लेनी पड़ती है ।
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अपने कल्याणके लिये किसी नयी परिस्थितिकी जरूरत नहीं है ।
प्राप्त परिस्थितिके सदुपयोगसे ही कल्याण हो सकता है ।
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कल्याण क्रियासे नहीं होता, प्रत्युत भाव और विवेकसे होता है
।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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