(गत ब्लॉगसे आगेका)
कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य अपने कर्तव्यसे,
अपने स्वरूपसे और अपने इष्ट (भगवान्) से विमुख हो जाता है और
नाशवान् संसारके सम्मुख हो जाता है ।
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साधकको न तो लौकिक इच्छाओंकी पूर्तिकी आशा रखनी चाहिये और न
पारमार्थिक इच्छाकी पूर्तिसे निराश ही होना चाहिये ।
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कामनाओंके त्यागमें सब स्वतन्त्र,
अधिकारी, योग्य और समर्थ हैं । परन्तु कामनाओंकी पूर्तिमें कोई भी स्वतन्त्र,
अधिकारी, योग्य और समर्थ नहीं है ।
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ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती हैं,
त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं,
त्यों-त्यों साधुता लुप्त होती है । कारण कि असाधुताका मूल हेतु
कामना ही है ।
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कामनामात्रसे कोई भी पदार्थ नहीं मिलता,
अगर मिलता भी है तो सदा साथ नहीं रहता‒ऐसी बात प्रत्यक्ष होनेपर
भी पदार्थोंकी कामना रखना प्रमाद ही है ।
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जीवन तभी कष्टमय होता है,
जब संयोगजन्य सुखकी इच्छा करते हैं और मृत्यु तभी कष्टमयी होती
है, जब जीनेकी इच्छा करते हैं ।
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यदि वस्तुकी इच्छा पूरी होती हो तो उसे पूरी करनेका प्रयत्न
करते और यदि जीनेकी इच्छा पूरी होती हो तो मृत्युसे बचनेका प्रयत्न करते । परन्तु इच्छाके
अनुसार न तो सब वस्तुएँ मिलती हैं और न मृत्युसे बचाव ही होता है ।
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इच्छाका त्याग करनेमें सब स्वतन्त्र हैं, कोई पराधीन नहीं है
और इच्छाकी पूर्ति करनेमें सब पराधीन हैं, कोई स्वतन्त्र नहीं है ।
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सुखकी इच्छा, आशा और भोग‒ये तीनों सम्पूर्ण दुःखोंके कारण हैं ।
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नाशवान्की चाहना छोड़नेसे अविनाशी तत्त्वकी प्राप्ति होती है
।
(अपूर्ण)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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