(गत ब्लॉगसे आगेका)
आप
इतने बैठे हैं । इनमें कोई भी ऐसा बिलकुल नहीं मान सकता कि मैं तो संसारके
सम्पूर्ण पापियोंसे भी अधिक पापी हूँ । एक नम्रता-प्रदर्शनके लिये भले ही कह दो कि ऐसा मैं पापी हूँ, ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’; परन्तु आपके हृदयमें जैसे
‘तत्त्वप्राप्तिमें देरी नहीं है’ यह बात नहीं जँचती, ऐसे ही हृदयमें यह बात भी
नहीं जँचती होगी कि मैं सबसे अधिक पापी हूँ । कोई मान ही नहीं सकता कि महाराज
सत्संग करते हैं, नाम-जप करते हैं, पाठ-पूजन करते हैं, सन्ध्या-गायत्री करते हैं;
कुछ-न-कुछ करते ही हैं । फिर यह कैसे मान लें कि हम सबसे अधिक पापी हैं ? अगर ऐसा हो
तो जलन पैदा हो जायगी । जलन पैदा होगी तो तत्काल कल्याण हो जायगा, देरी नहीं लगेगी
। यह जो जलन है, इसमें पापोंका नाश करनेकी बहुत शक्ति है ।
श्रोता–महाराजजी
! संस्कार ऐसे बैठे हुए हैं कि साधनासे ही होगा; भजन, जप, कीर्तनसे ही होगा ।
बार-बार पुस्तकोंमें भी ऐसा ही पढ़ते हैं, जिससे यह बात भीतरमें कूट-कूटकर बैठी हुई
है ।
स्वामीजी–पुस्तकें मैंने भी पढ़ी हैं । मैंने पुस्तकें नहीं पढ़ी हों, ऐसी बात नहीं है ।
परन्तु मैं जो बात कहता हूँ, वह भी पुस्तकोंसे ही कहता हूँ । अभी मैंने जो दो श्लोक गीताजीके
कहे हैं, इसमें समय लगानेकी बात कहाँ आती है ? यह बात जैसे यहाँ
ज्ञानमें कही गयी है, ऐसे ही भक्तिमें भी कही गयी है–
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
(गीता ९/३०)
‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता
है तो उसको साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरहसे कर लिया
है ।’
दोनों ही
जगह (४/३६ और ९/३० में) ‘अपि चेत्’ पद आये हैं ।
तात्पर्य है कि ऐसा तू नहीं है; परन्तु अगर तू अथवा दूसरा कोई हो भी जाय तो भी
कल्याण हो जाय । अगर ऐसा नहीं है तो फिर बात ही क्या है ! ‘साधुरेव स मन्तव्यः’ ‘उसे साधु ही मान लेना चाहिये’ ऐसा कहनेका क्या
अर्थ है ? तुम्हारेमें साधुपना नहीं दीखता, ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्’
नहीं दीखता तो भी मान लो । ज्ञानमें तो जान
लो और भक्तिमें मान लो । ये दोनों बातें तत्त्वसे जाननेके अन्तर्गत आती हैं
।
तत्त्वसे मान लेनेका नाम ही जानना है । मान लेनेका जो प्रभाव है, वह
जाननेसे कम नहीं है । जैसे, बालक मान लेता है कि यह मेरी माँ है ।
यह मानी हुई बात है, जानी हुई, अनुभव की हुई बात नहीं है । ‘यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्’ (गीता १०/३) ।
यहाँ ‘वेत्ति’ का अर्थ मानना है, जानना नहीं;
क्योंकि मनुष्य भगवान्को अनादि जानेगा कैसे ? इसे तो मानेगा ही । ऐसे ही ‘जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः’ (४/९) । इसमें
भी माननेकी बात है; क्योंकि भगवान्के जन्म और कर्मको वही जान सकेगा, जो भगवान्के
जन्म और कर्मसे पहले होगा । भगवान्के जन्म और कर्म (उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करने
आदि) से पहले कौन हुआ है ? अतः यहाँ ‘तत्त्वतः वेत्ति’
का अर्थ दृढ़तापूर्वक मानना ही है । ‘भोक्तारं यज्ञतपसां
सर्वलोकमहेश्वरम् । सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा ...’ (५/९) इसमें भी ‘ज्ञात्वा’ माननेके अर्थमें आया है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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