(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता–इसमें
महाराजजी, परोक्ष ज्ञान और अपरोक्ष ज्ञान...?
स्वामीजी–देखो, अभी आप पुस्तकोंकी कोई बात मत लाओ । पुस्तकोंका
प्रमाण देकर मेरेको चुप कराना चाहोगे तो मैं चुप हो जाऊँगा । और क्या होगा ?
परन्तु नतीजा क्या निकलेगा ? अपनी समस्या उलझेगी, सुलझेगी नहीं । मैं साफ कहता हूँ कि ज्ञान परोक्ष
होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं । ज्ञान अपरोक्ष
ही होता है । ज्ञान होगा तो वह परोक्ष कैसे होगा ? और परोक्ष
होगा तो वह ज्ञान कैसे होगा ? अनुभूति दो कैसे होगी ? जानना दो कैसे होगा ? इसपर
भी खूब विचार करो, मैंने किया है ऐसा । ग्रन्थोंसे लाभ होता है, पर नुकसान ज्यादा
होता है । यह बात तो नास्तिककी दीखती है ।
परन्तु मेरा विचार ऐसा ही हुआ है । अगर आप अपना
कल्याण चाहते हैं तो अभी-अभी इन बातोंको छोड़
दो । अनुभूति परोक्ष होती ही नहीं ।
श्रोता–किसी
चीजको मान लिया तो यह हुआ परोक्ष ज्ञान.....।
स्वामीजी–यह मानी हुई बात है ही नहीं, यह तो सीखी हुई बात है । मानी हुई बात और होती है, सीखी हुई बात और होती है, जानी हुई बात और होती है
। तोता ‘राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण’ कहना सीख लेता है तो वह परोक्ष-ज्ञानी हो गया
! परोक्षज्ञान हो ही नहीं सकता । जो परोक्ष है, वह ज्ञान कैसे ? अन्तःकरण,
इन्द्रियाँ ‘अक्ष’ हैं, इससे ‘पर’ होगा, वह ज्ञान कैसे होगा ? यह तो एक प्रक्रिया है ।
प्रक्रियाके अनुसार चले तो यह भी ठीक है । इस प्रक्रियामें पहले विवेक, वैराग्य,
षट्सम्पत्ति, मुमुक्षा–इस साधन चतुष्टयसे सम्पन्न हो । फिर श्रवण, मनन और
निदिध्यासन करे । फिर तत्त्वपदार्थसंशोधन करे । यह बहुत
लम्बा रास्ता है । इसमें तत्काल सिद्धि नहीं होती ।
श्रोता–महाराजजी
! आपने कहा कि हम शरीर नहीं हैं, शरीर आत्मासे भिन्न है । आपके कहनेसे हमने इसको
मान लिया ।
स्वामीजी–यह मानना, मानना नहीं है बाबा, यह सीखना
है । मेरी बात याद रखो कि यह मानना है ही नहीं । अनुभूति
चाहे न हो, पर मान्यता दृढ़ होनी चाहिये । जैसे पार्वतीजीकी नारदके उपदेशपर दृढ़
मान्यता थी–
जन्म कोटि लगि रगर हमारी ।
बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥
तजउँ न नारद
कर उपदेसू ।
आपु कहहिं सत बार महेसू ॥
(मानस १/८१/३)
भगवान् शंकर भी कहें तो भी नारदजीके उपदेशको
नहीं छोडूँगी । भगवान्से भूल हो सकती है, पर नारदजीसे भूल नहीं हो सकती । इसको कहते हैं मानना । शरीर और मैं दो हैं । ब्रह्माजी भी कह दें कि शरीर और तुम एक हो तो उनकी भूल हो
सकती है, पर हमारी नहीं हो सकती । हमारी समझमें न भी आये तो भी बात तो ऐसी ही है ।
इस प्रकारकी दृढ़ मान्यता ज्ञानके समान उद्धार करनेवाली
है । यह परोक्ष नहीं है । आपने विवाह किया तो स्त्रीको अपना मान लिया । अब
इसमें सन्देह होता है क्या ? विपरीत धारणा होती है क्या ? बताओ । माननेके सिवाय और
इसमें क्या है ? स्त्री सती हो जाती है, आगमें जल जाती है–केवल माननेके कारण ।
जलनेपर भी आग बुरी नहीं लगती ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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