(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता–अन्तःकरण शुद्ध
हुए बिना उससे सम्बन्ध टूट सकता है क्या ?
स्वामीजी–वास्तवमें
तो सम्बन्ध है ही नहीं, पर सम्बन्ध मान लिया है । मान हुआ सम्बन्ध नहीं माननेसे
मिट जायगा । इसमें शुद्धि-अशुद्धिसे क्या लेन-देन !
श्रोता–यह मान्यता बिना अन्तःकरण शुद्ध हुए
भी हो सकती है क्या ?
स्वामीजी–बिलकुल हो
सकती है । आपके भीतर यह भाव होना चाहिये कि मेरी मुक्ति हो जाय, मुझे बोध हो जाय ।
मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो जाय, उससे सम्बन्ध विच्छेद हो
जाय–यह बात वास्तवमें सम्बन्धको दृढ़ करनेवाली है । किसीको मिटाना चाहते हो
तो मिटानेसे पहले उसकी सत्ता मानते हो । अगर सत्ता नहीं मानते तो फिर मिटाते किसको
हो ? सत्ता मानते हो, तभी तो आप सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहते हो । सम्बन्ध है–यह
मान्यता होती है, तब उसको दूर करते हो । मैं कहता हू कि सम्बन्ध है ही नहीं ! उस
(शास्त्रीय) प्रणालीमें और इस प्रणालीमें यही खास फरक है । जैसे,
वेदान्त-ग्रन्थोंमें आता है कि ‘अध्यारोपापवादाभ्यां
निष्प्रपञ्चमं प्रपञ्चयते’ अध्यारोप और अपवाद–इन दोनोंसे निष्प्रपञ्चका
प्रपञ्च होता है अर्थात् परमात्माका विवेचन होता है । तो मैं कहता हूँ कि जब अपवाद ही करना है तो अध्यारोप करो ही क्यों ?
श्रोता–मेरा प्रश्न यही उठ रहा है कि
अन्तःकरणकी शुद्धि हुए बिना मान्यता बनती नहीं ।
स्वामीजी–मैं कहता हूँ
कि बनती है । अन्तःकरणको लेकर बनाओगे तो नहीं बनेगी । देखो, सनकादिकोंने जाकर
ब्रह्माजीसे प्रश्न किया कि मन विषयोंमें फँसा हुआ है और विषय मनमें बसे हुए हैं
तो फिर मनको विषयोंसे अलग कैसे करें ? तो उत्तर दिया कि इन
दोनोंसे ही सम्बन्ध-विच्छेद कर दो–‘मद्रूप उभयं
त्यजेत्’ (श्रीमद्भा. ११/१३/२६) । यही तो मैं कहता हूँ । इस साधनको क्यों
नहीं पकड़ते आप ? यह शास्त्रकी बात है, मेरे घरकी नहीं है । मेरे घरकी इतनी ही बात है कि इसीको जोरसे पकड़ना चाहिये,
दूसरेको नहीं । अध्यारोप करो, उसको रखो, फिर उसको दूर करो; क्यों आफतमें फँसते हो
? है ही नहीं हमारेमें । इससे साधककी जल्दी सिद्धि होती है, इसलिये इसका आदर करो ।
यह प्रणाली मेरी नहीं है और न किसीका ठेका है इसपर । यह तो सामान्य बात है ।
श्रोता–महाराज ! जहाँ जिज्ञासा होती है,
मान्यता होती है, वहींपर हमारी भोगोंमें रुचि पैदा होती है ।
स्वामीजी–भोगोंकी
रुचि है, सुखभोगकी इच्छा है–यही घातक है । इसका आप त्याग नहीं करते, इसीलिये
सम्बन्ध-विच्छेदकी बात कठिन दीखती है, नहीं तो यह बहुत सुगम और बहुत सरल है ।
श्रोता–यह सुखभोगकी इच्छा ही खास बीमारी है
महाराजजी ।
स्वामीजी–खास बीमारी है
तो इसको दूर करो । वास्तवमें जब आपकी समझमें आ गयी कि यह बीमारी है तो बीमारी आपसे
आपसे दूर हो गयी । आँखमें लगा हुआ अंजन आँखसे नहीं दीखता । अंजन आँखसे तब दीखता
है, जब वह आँखसे दूर हो–अँगुलीपर लगा हो ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी
सुगमता’ पुस्तकसे
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