(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता–स्वामीजी ! दोषको जानते हुए भी और
इसको दूर करना चाहते हुए भी यह दूर क्यों नहीं होता ?
स्वामीजी–जबतक
सुखकी इच्छा है, तबतक वह दोष दूर नहीं होगा । जैसी सुखभोगकी इच्छा है, वैसी त्यागकी इच्छा नहीं है । सुखभोगकी इच्छा ज्यादा
प्रबल है । उसकी अपेक्षा उसके त्यागकी इच्छा बहुत कमजोर है ।
श्रोता–यह सही बात है महाराजजी, सुखभोगकी
रुचि ज्यादा है ।
स्वामीजी–तो सुखभोगकी
रुचिको दूर करो, और उस रुचिको दूर करनेमें आपको अभ्यास करना पड़ेगा । अगर अभ्यास न
करके ‘यह मेरेमें है नहीं’–इसको मान लो तो बहुत जल्दी काम हो जाय । वास्तवमें अन्तःकरणकी शुद्धि करनेकी अपेक्षा अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद करो
तो यह बहुत जल्दी सिद्धि करनेवाली बात है । सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे जो
शुद्धि होगी, वह शुद्धि करनेसे नहीं होगी । बच्चा माँकी गोदीमें
रहता हुआ शुद्ध नहीं होता । माँके मोह-पूर्वक स्नेहमें पला हुआ
बालक निर्मोही नहीं हो सकता । बापका मोह कम होता है तो बापके पास रहनेवाला बालक
सुधरेगा । अध्यापकका मोह और कम होता है तो उसके पास रहनेवाला बालक और ज्यादा
सुधरेगा । तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्तका मोह होता ही नहीं, इसलिये उसके पास कोई रहेगा
तो वह बहुत शुद्ध हो जायगा, सुधर जायगा । इस तरह आप
अन्तःकरणको अपना मानते रहोगे तो वह शुद्ध नहीं होगा । मेरापनरूपी मल तो लगाते जाते
हो और कहते हो कि शुद्ध कर लूँगा ! कैसे शुद्ध कर लोगे ? मेरा है ही नहीं–यह
बात बहुत ही शुद्ध करनेवाली है और जल्दी शुद्ध करनेवाली है । इसी बातको
लेकर मेरी प्रणाली और तरहकी दीखती है । वह (दूसरी) प्रणाली भी मेरी पढ़ी हुई है और देखी
हुई है तथा यह प्रणाली भी देखी हुई है । उस प्रणालीमें देरी लगती है, जल्दी सिद्धि
नहीं होती । आप ही देख लो कि इतने वर्षोंसे सत्संग करते हैं, साधन करते हैं, पर
वास्तविक सिद्धि कितनोंको मिली ? अशुद्धिको आदर देते
हुए, अपनेमें मानते हुए उसको दूर करना चाहते हैं । इससे वह दूर होगी नहीं ।
वास्तवमें आपके
स्वरूपमें यह है नहीं । ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न
करोति न लिप्यते ।’ (गीता १३/३१) अर्थात् शरीरमें स्थिति रहता हुआ भी आपका
स्वरूप शरीरमें स्थित नहीं है, कर्ता और भोक्ता नहीं है । इस प्रकार सीधे स्वरूपको
ही पकड़नेकी मेरी प्रणाली है । यह कोई नयी बात नहीं है ।
श्रोता–पर स्वामीजी ! रामायणमें तो ज्ञानको
कठिन बताया है और आप कहते है कि सरल है ?
स्वामीजी–आप प्रमाण दोगे तो मैं चुप हो जाऊँगा, पर मैं मानूँगा थोड़े ही
इस बातको ! आप रामायणकी बात कहोगे तो हृदयमें गोस्वामीजी महाराजका आदर होनेके कारण
मैं चुप हो जाऊँगा । परन्तु जो सरल है, वह कठिन कैसे हो जायगा ? गोस्वामीजी
महाराजने इसको सरल कहा है–
निर्गुन
रूप सुलभ
अति सगुन जान नहिं कोइ
।
सुगम अगम नाना
चरित सुनि मुनि मन भ्रम होई ॥
(रामचरितमानस७/७३
ख)
यह और किसीकी वाणी है क्या ? बोलो ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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