(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न–कहते हैं कि गुरुसे मन्त्र लेनेसे उस
मन्त्रमें शक्ति आती है ?
उत्तर–मन्त्र
देनेवालेमें शक्ति होगी, तभी उसके दिये मन्त्रमें शक्ति आयेगी । जिसके खुदमें शक्ति न
हो, उसके दिये मन्त्रमें शक्ति कैसे आयेगी
? इसलिये कहा है–
वचन आगले सन्त का, हरिया हस्ती दन्त ।
ताख न टूटे भरम का, सैंधे
ही बिनु संत ॥
अर्थात् अनुभवी सन्तका वचन हाथी-दाँतकी तरह होता है, जो
अज्ञानरूपी द्वारको तोड़ देता है । हाथी अपने दाँतसे किलेका द्वार तोड़ देता है ।
परन्तु हाथीके बिना केवल उसके दाँतसे कोई द्वार तोड़ना चाहे तो नहीं तोड़ सकता ।
कारण कि वास्तवमें शक्ति हाथीमें है, केवल उसके दाँतोंमें नहीं । ऐसे ही शक्ति सन्तके अनुभवमें है, केवल उसके वचनोंमें नहीं ।
आजकल गुरु बननेका, अपने सम्प्रदायकी टोली
बनानेका शौक तो है, पर जीवका कल्याण हो जाये–इस तरफ खयाल कम है । अपने सम्प्रदायके
अनुसार मन्त्र देनेसे अपनी टोली तो बन जाती है, पर तत्त्वप्राप्तिमें
कठिनता होती है । तत्त्वप्राप्ति तब होती है, जब अपनी श्रद्धा, विश्वास, रुचि और
योग्यताके अनुसार साधन किया जाय । सभी उपासनाएँ ठीक है,
पर जो उपासना स्वाभाविक होती है वही असली होता है और जो की जाती है, वह नकली होती
है । आजकल साधन करनेवालोंके सामने बड़ी उलझन आ रही है । गुरुजीने कृष्ण-मन्त्र
दे दिया, पर हमारा मन लगता है राम-मन्त्रमें,
अब क्या करें ? इस विषयमें मेरी प्राथना है कि
अगर आपकी रुचि, श्रद्धा-विश्वास राम-मन्त्रमें है तो राम-मन्त्रका ही जप करना
चाहिये । उपासना वही सिद्ध होती है, जिसमें स्वतः-स्वाभाविक रुचि होती है । ऊपरसे
भरी हुई उपासना जल्दी सिद्ध नहीं होती ।
जिस मन्त्रमें आपका श्रद्धाभाव अधिक होगा, उस मन्त्रमें
स्वतः शक्ति आ जायगी । कारण कि मूलमें शक्ति परमात्माकी है, किसी व्यक्तिकी नहीं ।
अगस्त्य, विश्वामित्र, आदि बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंमें जो शक्ति थी, वह उनको गुरुसे
प्राप्त नहीं हुई थी, प्रत्युत अपनी तपस्या आदिके कारण भगवान्से प्राप्त हुई थी ।
भगवान्की शक्ति सर्वत्र है, नित्य है और सबके लिये है ।
उसमें किसीका पक्षपात नहीं है, जो चाहे, उस
शक्तिको प्राप्त कर सकता है ।
प्रश्न–गुरुके
बिना कुण्डलिनी कैसे जगेगी ?
उत्तर–कुण्डलिनी जगनेसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती । कल्याण नहीं होता, किसी
सोयी हुई सर्पिणीको छेड़ दो तो क्या मुक्ति हो जायेगी ? श्रीशरणानन्दजी महाराजसे किसीने पूछा कि कुण्डलिनीके विषयमें आप क्या
जानते है ? उन्होंने उत्तर दिया कि हम यह जानते है कि कुण्डलिनीके
साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है । कुण्डलिनी सोती रहे अथवा जाग जाय, उससे हमारा क्या
मतलब ? कुण्डलिनी शरीरमें है, स्वरूपमें नहीं । अतः कुण्डलिनीके जगनेसे साधक
शरीरसे अतीत कैसे होगा ? शरीरसे अतीत हुए बिना कल्याण कैसे होगा ? कल्याण तो
शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही होता है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं?’ पुस्तकसे
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