।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७४, गुरूवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

एक हरदम याद रखनेवाली बात है कि हमारा स्थान वास्तवमें भगवान्के पास है; क्योंकि हम भगवान्के अंश हैं । भगवान्की प्राप्ति हमारे घरकी प्राप्ति है । लोगोंने मान रखा है कि हम तो संसारी हैं, भगवान्की प्राप्ति कठिन है । वास्तवमें यह बात नहीं है । हम संसारी नहीं हैं, प्रत्युत भगवान्के हैं । यह संसार हमारा घर नहीं है । सबको यह धारणा करनी चाहिये कि भगवान्की प्राप्ति करना अपने घरकी प्राप्ति करना है । इसमें एक विलक्षण बात है कि भगवान्का घर वहाँ है, जहाँ भगवान् हैं । भगवान् सब जगह हैं ! ऐसी कोई जगह खाली नहीं है, जिसमें भगवान् न हों । अतः हम भगवान्के घरमें ही बैठे हैं ! जाना-आना तो चौरासी लाख योनियोंका है । हम तो हरदम भगवान्के घर बैठे हैं ! जहाँ भगवान् हैं, वहीं हम हैं ! सब जगह परमात्मा परिपूर्ण हैं । अभी आप जहाँ हैं, वहाँ पूर्ण परमात्मा है । इससे एक बात सिद्ध होती है कि कुछ नहीं करना है ! कुछ नहीं करनेसे परमात्माकी प्राप्ति होती है । करनेसे संसारकी प्राप्ति होती है । मन, वाणी आदिसे कोई क्रिया नहीं करोगे तो परमात्मामें स्थिति होगी । क्रिया और पदार्थ संसारका स्वरूप है । विश्राम परमात्माका स्वरूप है । गोस्वामीजीने कहा है‘पायो परम बिश्रामु’ (मानस, उत्तर १३० छंद)

कुछ नहीं करनेमें नींद, आलस्य, प्रमाद नहीं होना चाहिये । आलस्य हो तो नामजप करो, कीर्तन करो । यह ‘चुप साधन’ है । कुछ नहीं करना मामूली बात नहीं है, बड़ी भारी बात है ! कर्तृत्व ही संसार है । प्राणायाम, समाधि आदि सब ‘करने’ में हैं । ‘चुप साधन’ तभी सिद्ध होता है, जब मनमें कुछ करनेकी, बोलनेकी, सुननेकी, सोचनेकी, समझनेकी इच्छा न रहे । यह इच्छा तबतक रहती है, जबतक करनेका वेग भरा रहता है । कर्मयोग केवल वेग शान्त करनेके लिये है । कोई भी इच्छा न रहे तो परमात्मामें स्थिति स्वतः-स्वाभाविक है ।

परमात्माकी विलक्षणता मैंने बहुत बार कही है, पर पूरी कोई कह सकता ही नहीं ! कोई परमात्माकी पूरी शक्ति कह दे, यह असम्भव बात है; क्योंकि वह अनन्त है, अपार है, असीम है । आज दिनतक वेदोंमें, पुराणोंमें, शास्त्रोंमें परमात्माका जो वर्णन हुआ है, वह सब-का-सब इकट्ठा कर दिया जाय, तो वह परमात्माके किसी छोटे अंशका भी वर्णन नहीं हुआ है ! ऐसे अनन्त, अपार, असीम परमात्माकी महिमाको तो हम नहीं कह सकते, पर उनको अपना मान सकते हैं ! यह असली तत्त्वकी बात है । वे अपने हैं और सदा अपने ही रहेंगे । इसमें विलक्षणता यह है कि हम जितने घूमते-फिरते हैं, वे सदा हमारे साथमें रहते हैं ! सन्त-महात्मा दूसरोंको अपना क्यों नहीं मानते कि कोई सदा साथ रहता ही नहीं ! कोई साथ रहनेवाला है ही नहीं तो क्या करें ? भगवान्को अपना माननेके लिये मजबूर हो गये ! किसको अपना समझें ? किससे प्रेम करें ? किसके साथ स्नेह करें ? किसको अपना साथी बनायें ? भगवान्का चाहे जो भी रूप मानो, एक वे ही सदा हमारे साथ रहते हैं । चौरासी लाख योनियोंमें जायँ तो भी साथमें, स्वर्गमें जायँ तो भी साथमें, नरकोंमें जायँ तो भी साथमें, मृत्युलोकमें जायँ तो भी साथमें, त्रिलोकीमें हम कहीं भी जायँ भगवान् हमारे साथमें हैं । वे हमारा साथ छोड़ते ही नहीं । साथ छोड़ना उनको आता ही नहीं ! भगवान् अनन्त विद्याएँ जानते हैं, पर हमारा साथ छोड़ना नहीं जानते ! उनमें सब सामर्थ्य है, पर हमें छोड़नेकी सामर्थ्य नहीं है !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे