।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७४, शुक्रवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

आश्चर्यकी बात है, आप उनको साथी बनाते हो, जिनके लिये रोना पड़े ! पहले साथी बनाओ, पीछे रोओ ! ऐसा काम करो ही क्यों ? ऐसा साथी बनाओ, जिसके लिये कभी रोना पड़े ही नहीं । जो साथ रहनेवाले नहीं हैं, उनकी सेवा करो, उनको सुख पहुँचाओ । नहीं कर सको तो चुपचाप रहो, उनमें फँसो नहीं । वे नहीं रहेंगे तो रोना पड़ेगा । उनमें मोह नहीं करो तो क्यों रोना पड़े ?

श्रोताभगवान्में प्रेम होना भजनसे बढ़कर हैइसका क्या भाव है ?

स्वामीजीइसका भाव यह है कि जीव भगवान्का ही है, दूसरे किसीका है ही नहीं । अतः प्रेम होनेसे वह अपने असली ठिकाने पहुँच जायगा । ज्ञान होनेसे अपने स्वरूपका बोध होता है । स्वरूपका बोध होनेसे अभाव, दुःख मिट जायगा, मुक्ति हो जायगी, पर मिला क्या ? पर प्रेमसे भगवान् मिलेंगे !

श्रोताआप कई बार कहते हैं कि कुछ करना नहीं है, तो ‘न करने’ का स्वरूप क्या है ?

स्वामीजीजब करनेकी, देखनेकी, सुननेकी, चिन्तन करनेकी मनमें न रहे, इनसे तृप्त हो जाय, तब ‘न करना’ बहुत जल्दी होता है । ‘न करना’ हरेकको प्राप्त नहीं होता । न संसारका चिन्तन करना है, न आत्माका चिन्तन करना है, न भगवान्का चिन्तन करना है । इसप्रकार ‘चुप’ होते ही परमात्मामें ही स्थिति होती है । परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है । जहाँ आप हो, वहीं परमात्मा है ।

श्रोतामेरा मन भगवान्के भजनमें लग रहा है, पर माँ मुझे रोकती है, तो मैं घर छोड़कर चला जाऊँ क्या ?

स्वामीजीमाँको मत छोड़ो । भगवान्में लगे रहो । आप भी सत्संगमें आओ और माँको भी सत्संगमें लाओ । माँ नहीं आये तो आज्ञा माँगकर सत्संगमें आओ । छोड़नेसे माँको दुःख होगा । संसारमें सबसे ऊँचा दर्जा माँका है । माँको दुःख मत दो ।

पहले यह बात थी कि हम मुसाफिरीमे हैं । आज मेरे मनमें आयी कि हम मुसाफिरीमें हैं ही नहीं, हम तो अपने घरमें बैठे हैं ! भगवान्ने पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकारये आठ प्रकारकी अपनी अपरा प्रकृति बतायी (गीता ७ । ४) । इन आठोंके सिवाय और क्या है ? बताओ । अपरा प्रकृति भगवान्का स्वरूप है । अतः हम तो घरमें ही बैठे हैं, मुसाफिरी कैसे हुई ? अगर घरमें नहीं हैं तो फिर कहाँ हैं आप ? बताओ । गलती यह है कि अपरा प्रकृतिको अपना मानते हैं और भगवान्को अपना नहीं मानते । मुसाफिरी तो तब हो, जब भगवान्से अलग हों । हम भगवान्से अलग होते नहीं, हो सकते ही नहीं ! हम भगवान्से दूर गये ही नहीं । भगवान्की गोदीमें ही बैठे हैं ! अपरा प्रकृतिको अपना मान लियाइस मान्यताने ही गड़बड़ी की है, और कोई गड़बड़ी नहीं । अपरा प्रकृति केवल सेवाके लिये है । आपके पास जो वस्तु है, वह संसारकी सेवाके लिये ही है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे