।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
 फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७४, बुधवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

कन्यारूपी धन लेनेका भी कर्जा चढ़ता है, फिर साथमें धन भी माँगना घोर अन्याय है ! दहेजमें मिला हुआ धन दान-पुण्यमें लगा देना चाहिये, घरमें नहीं रखना चाहिये । बेटेके ससुरालसे आया हुआ धन अपने काममें नहीं लेना चाहिये । वह तो सब-का-सब बाँट देना चाहिये । अगर वहाँसे थोड़ी मिठाई आये तो वैसी मिठाई अपने घरसे, अपने पैसोंसे बनाकर समाजमें बाँटनी चाहिये । जो कन्यारूपी धनका निरादर करता है, उसके वंशका नाश होता है, बड़ा भारी पाप लगता है !

विवाहके बाद लड़कीको भी अपने पीहरका धन नहीं लेना चाहिये । विवाहके बाद उसका घर बदल जाता है, गोत्र बदल जाता है ।

गीताके सातवें अध्यायमें भगवान् कहते हैं

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे    भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
                                          (गीता ७ । ४)

‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश (-ये पंचमहाभूत) और मन, बुद्धि तथा अहंकारइस प्रकार यह आठ प्रकारके भेदोवाली मेरी यह अपरा प्रकृति है ।’

भगवान्ने अहंकारको अपना (इतीयं मे) कहा है । उस अहंकारको आपने अपना मान लियायह गलती की है । अहंकारको भगवान्का मानना चाहिये । अहंकार भगवान्का है, आपका नहीं हैयह बहुत बढ़िया बात है ! अहंकार अपरा प्रकृतिका आठवाँ अंश है । जैसे मिट्टीका ढेला भगवान्का है, अपना नहीं है, ऐसे ही अहंकार भी भगवान्का है, अपना नहीं है । मेरी दृष्टिसे यह बहुत उत्तम, बहुत श्रेष्ठ बात है ! अहंकार मेरा नहीं है, इसलिये ‘निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २ । ७१) अर्थात् जो निर्मम और निरहंकार होता है, वह शान्तिको प्राप्त होता है । कारण कि अपना न मानकर भगवान्का मानेंगे, तभी निर्मम-निरहंकार होंगे । अगर अपना मानेंगे तो निर्मम-निरहंकार कैसे होंगे ? निर्मम-निरहंकार होना ‘ब्राह्मी स्थिति’ है‘एषा ब्राह्मी स्थितिः’ (गीता २ । ७२) अगर मैं-मेरापन छोड़ दो तो आप साक्षात् ब्रह्म हो !

जैसे कन्यादान एक बार ही होता है, ऐसे ही मैं-मेरेका त्याग भी एक ही बार होता है । यह मेरा नहीं हैऐसा एक बार कह दिया तो अब दूसरी बार क्या कहेंगे ?

श्रोताये चैव सात्त्विका भावा (गीता १२)इसकी व्याख्यामें आपने लिखा है कि आप गुणोंमें फँस जाते हो, इसलिये भगवान्का भजन नहीं कर सकते हम गुणोंमें नहीं फँसे, ऐसा कोई उपाय बतायें

स्वामीजीशरीर मैं नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं हैये तीन बातें मान लो । शरीर केवल संसारकी सेवाके लिये है । अतः केवल सेवाके लिये ही जीना है । सेवाके लिये जीते रहेंइसके लिये ही अन्न, जल और नींद लेनी है ।

श्रोतामेरा भजन-ध्यानमें तो मन लगता है, पर सत्संगमें मन नहीं लगता मुझे सत्संग करना चाहिये या भजन-ध्यान करना चाहिये ?


स्वामीजीभजन-ध्यान करना चाहिये । जैसे व्यापार वही करना चाहिये, जिसमें रुपया ज्यादा पैदा हो, ऐसे ही साधन वही करना चाहिये, जिसमें मन ज्यादा लगे । एक समय सत्संग भी कर लेना चाहिये । कारण कि सत्संग एकान्तमें किये जानेवाले साधनकी पुष्टि करनेवाला होता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे