(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्के साथ जिन्होंने विरोध किया, उनका भी उद्धार हो
गया और जिन्होंने प्रेम किया, उनका भी उद्धार हो गया;
परन्तु जो उदासीन रहे, उनका उद्धार नहीं हुआ ।
ऐसे ही दोषोंको दूर करना हो तो उनकी उपेक्षा करो । दोषोंके साथ जितना द्वेष करोगे और
दूर करनेकी चेष्टा करोगे, उतने दोष प्रबल हो जायँगे; क्योंकि अपनी दृष्टिमें दोषोंको प्रबल मानकर ही दूर करनेकी चेष्टा करते हैं
। वे दूर तभी होंगे, जब उनकी उपेक्षा करेंगे । इसलिये भक्तिमार्ग
सुगम पड़ता है । ज्ञानमार्ग विवेकप्रधान होनेसे उसमें दोषोंको दूर करते हैं,
इसलिये बहुत दूरतक जानेपर भी उनकी सत्ता रहती है । परन्तु भक्तिमार्गमें
एक भगवान्के ही सम्मुख होनेसे दोष अपने-आप दूर हो जाते हैं;
क्योंकि दोषोंकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । सत्ता गुणोंकी है । गुणोंका
अभाव ही दोषरूपसे प्रकट होता है । सभी दोष गुणोंकी कमीसे ही पैदा होते हैं । अगर उनको
दूर करनेमें ज्यादा जोर लगायेंगे तो उनकी सत्ता दृढ़ हो जायगी । इसलिये उनकी उपेक्षा
करके, उनसे उदासीन होकर भगवान्में लग जायँ । दोष हैं कि नहीं
हैं, उनसे अपना मतलब ही न रखें । भगवान्का भरोसा रखें । उनकी
कृपासे सब ठीक हो जायगा ।
भक्तिसे भक्ति पैदा होती है‒‘भक्त्या
सञ्जातया भक्त्या’ (श्रीमद्भा॰ ११ । ३ । ३१) । भक्तिका साधन भी भक्ति है और साध्य
भी भक्ति है । जिनकी वृत्ति भगवान्की तरफ ही लगी हुई है, उनमें दोष जल्दी पैदा
नहीं होते । परन्तु ज्ञानमार्गमें दोष जबर्दस्त होते हैं । कारण कि उसमें विवेक मुख्य
है । विवेकमें सत् और असत् दोनों होते हैं । इसलिये जिसका
त्याग करते हैं, उसकी सत्ता
अपने मनमें रहती है । उसका त्याग करनेमें जितना जोर लगायेंगे, उतनी ही उसकी सत्ता दृढ़ होगी । इसलिये दोष जल्दी दूर होते नहीं; क्योंकि उन दोषोंको अपने द्वारा ही पुष्टि मिलती है । इसलिये दोषोंकी उपेक्षा
करना, उदासीन रहना अच्छा है । उनसे
द्वेष भी न करे और राग भी न करे । अगर उनमें राग, आसक्ति,
प्रियता होगी तो दोष जायँगे कैसे ? जितनी उपेक्षा
बढ़िया है, उतना विरोध बढ़िया नहीं है । भक्तिमार्गमें भगवान्में प्रेम है और दोषोंकी उपेक्षा है ।
हम समझते हैं कि विरोधसे दोष दूर होंगे, पर वास्तवमें विरोधसे
वे पुष्ट हो जाते हैं ।
श्रोता‒आपने फरमाया कि परमात्मा तत्काल जाननेयोग्य, प्राप्त करनेयोग्य वस्तु है; परन्तु रामचरितमानसमें आया है‒‘सोइ जानइ जेहि देहु जनाई’ (मानस, अयोध्या॰ १२७ । २) । जिसे भगवान् जनायेंगे, वही उन्हें जान पायेगा तो यह उन्हींपर निर्भर है, हमारेपर क्या निर्भर है ?
स्वामीजी‒निर्भर हमारेपर नहीं है, प्रत्युत भगवान्पर
निर्भर है, पर जिम्मेवारी हमारेपर जरूर है । परमात्माकी प्राप्ति
वर्तमानमें होनेवाली है‒यह बात मैंने वर्षों पहले कही थी । मेरी
यह बात बहुत पुरानी है । अब यह बात विशेषतासे प्रकट हुई है । मेरेको बहुत पहलेसे यह
बात जँची हुई है कि जब परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है और जो
परमात्माको चाहनेवाला है, उस
जगह भी परमात्मा पूर्णरूपसे है तो उसको जल्दी प्राप्ति क्यों नहीं होगी ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
|