(गत ब्लॉगसे आगेका)
लोगोंको यह दीखता है कि हम सच्चे हृदयसे
परमात्माकी प्राप्ति चाहते हैं, पर परमात्मप्राप्तिकी बात बतानेवाला कोई
है नहीं । परन्तु मैं कहता हूँ कि आज परमात्मा और उनकी प्राप्तिकी बात बतानेवाला‒दोनों निकम्मे बैठे हैं ! कोई पूछनेवाला नहीं है !
कोई सच्चे हृदयसे चाहनेवाला नहीं है ! लोग दो चीजोंको चाहते
हैं‒रुपये इकट्ठे हो जायँ और भोग भोग लें । गीतामें लिखा है कि
जो रुपये इकट्ठे करना चाहता है और भोग भोगना चाहता है, वह परमात्मप्राप्तिका
निश्चय भी नहीं कर सकता‒
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्
।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न
विधीयते ॥
(गीता २ ।
४४)
‘उस पुष्पित वाणीसे जिनका अन्तःकरण
हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी
परमात्मामें एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती ।’
जो भोग और संग्रह चाहता है, उसको परमात्माकी प्राप्ति
नहीं होगी । परन्तु जो भोग और संग्रह नहीं चाहता, प्रत्युत परमात्माकी
प्राप्ति चाहता है, उसको जरूर प्राप्ति होगी ।
भगवान्को पुकारो कि ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’
। यह सबके लिये बढ़िया चीज है । ‘हे नाथ ! हे मेरे प्रभो ! हे मेरे
स्वामिन् ! मैं आपको भूलूँ नहीं’ पुकारो तो सब काम ठीक हो जायगा
। सच्चे हृदयसे भगवान्में लग जाओ, फिर नफा-ही-नफा है, नुकसान है ही नहीं ! चलते-फिरते,
उठते-बैठते, हरदम कहते रहो
कि ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’ । यह बहुत बढ़िया मन्त्र है
। कोई भाई हो, बहन हो, छोटा हो,
बड़ा हो, बालक हो, बूढ़ा हो,
सबके लिये यह बढ़िया उपाय है । जरूर काम सिद्ध होता है । क्यों सिद्ध
होता है ? कि मनुष्यशरीर मिला ही इसके लिये है । यह बातें सुननेको भी मिलती नहीं, आपलोग परवा नहीं करते हो !
शरीर मैं नहीं हूँ‒इसमें ज्यादा जोर नहीं लगाना है । एक सिद्धान्तकी बात है कि किसी दोषको मिटानेके लिये ज्यादा जोर
लगाना उस दोषको पक्का करना है । कारण कि ज्यादा जोर लगानेसे सिद्ध होता है कि
वह दोष मजबूत है । अतः हम तो दोषको मिटानेकी चेष्टा करते हैं, पर उसका फल उल्टा होता है ! वह दोष दृढ़ हो जाता है !
दोषको न मिटाना है, न उसका अनुमोदन करना है, प्रत्युत उसकी उपेक्षा करनी है । दोष अच्छा है‒यह भी नहीं करना है और दोष खराब है‒इस तरह उसके पीछे
भी नहीं पड़ना है, प्रत्युत दोष अच्छा नहीं है‒इतना समझकर भजनमें, अपने साधनमें लगा रहे । दोष अच्छा
नहीं है‒इतना काफी है, ज्यादा जोर नहीं
लगाना है । न विरोध करना है, न अनुमोदन करना है । न ठीक समझना
है, न बेठीक समझना है । शरीर मेरा स्वरूप नहीं है, बस, इतना काफी है । भजनमें लगे रहो, अपने-आप छूट जायगा । प्रकृति स्वतः-स्वाभाविक हित करती है । ऐसा समझते रहना चाहिये कि भगवान्की कृपासे सब काम
ठीक हो रहा है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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