।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७५, रविवार
                    मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोताजब परमात्मा सब जगह परिपूर्ण हैं तो फिर वे दीखते क्यों नहीं ? दूर क्यों मालूम देते हैं ?

स्वामीजीजो उत्पन्न और नष्ट होनेवाली चीजोंके द्वारा, मन-बुद्धि-इन्द्रियोंके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति करना चाहता है उसको परमात्मा दूर दीखते हैं । परमात्माकी प्राप्ति कर्मोंके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत अपनेपनके भावसे होती है । अपने-आपको छोड़कर मन-बुद्धिको लगानेसे उनकी प्राप्ति नहीं होगी । अपने-आपको परमात्मामें लगाओ । आप परमात्माके अंश हो ।

अहम्‌ जाग्रत् और स्वप्नमें रहता है । सुषुप्तिमें अहम्‌ नहीं रहता, प्रत्युत अविद्यामें लीन हो जाता है । अविद्यामें लीन होनेपर अहम्‌ आपके साथ नहीं रहता । अतः आप अहम्से अलग हो । ‘मैं हूँ’ऐसा दीखता है, तो दीखनेवाली वस्तु आप नहीं हो । आप देखनेवाले हो । परन्तु देखनेवाले भी तब होते हो, जब वस्तुको देखते हो । जब आप नहीं देखते हो, तब आप देखनेवाले नहीं होते, प्रत्युत आप सत्तामात्र होते हो । अतः आप देखनेवाले (द्रष्टा) भी मत बनो । द्रष्टा बननेसे दृश्यके साथ सम्बन्ध होता है । दृश्यके साथ आपका सम्बन्ध नहीं है । आपका सम्बन्ध भगवान्‌के साथ है । इसलिये अपने-आपको भगवान्‌में लीन कर दो ।

आप नाशवान् पदार्थोंके द्वारा भगवान्‌की प्राप्ति चाहते हैं, इसलिये भगवान् दूर दीखते हैं । अगर नाशवान् पदार्थोंको छोड़कर ‘मैं भगवान्‌का हूँ’इस प्रकार स्वयं भगवान्‌में लग जायँ तो भगवान् दूर नहीं दीखेंगे, प्रत्युत नजदीक दीखेंगे । कारण कि मैं भगवान्‌की चीज हूँ, भगवान्‌का अंश हूँ, भगवान्‌को ही चाहता हूँ । मनसे भगवान्‌का चिन्तन करना भी एक साधन है, पर यह साधन जल्दी मुक्ति देनेवाला नहीं है । आप खुद भगवान्‌के हो जायँ । आपके और भगवान्‌के बीचमें मन, बुद्धि और अहंकार न रहें, तब भगवान्‌की प्राप्ति होगी । परन्तु मन, बुद्धि और अहंकारके द्वारा भगवान्‌को प्राप्त करना चाहोगे तो भगवान् दूर दीखेंगे ।

बालक माँमें मन नहीं लगाता, प्रत्युत स्वयं लगता है । इसी तरह साधक स्वयं भगवान्‌में लग जाय । मन-बुद्धिसे विमुख होकर भगवान्‌के सम्मुख हो जाय तो भगवान्‌की प्राप्ति हो जायगी । जो दूर होनेवाले हैं, आपके साथ सदा नहीं रहते, उनको अपने साथ मानकर उनके द्वारा भगवान्‌की प्राप्ति चाहते हैं, इसलिये भगवान् दूर दीखते हैं ।

अपने-आपको भगवान्‌में लगा दो और कोई इच्छा, कामना मत करो । भगवान्‌की भी इच्छा नहीं करनी है ! मैं भगवान्‌का हूँ तो इच्छा क्या करें ? कोई नहीं कहता कि माँकी तुम इच्छा करो । मैं माँका हूँ तो इच्छा क्या करें ? बिना चाहे, बिना विवेक किये मेरी माँ है !

‘मैं भगवान्‌का हूँ’ऐसा माननेसे मैं-पन मिट जायगा और आपकी जगह भगवान् आ जायँगे ।

श्रोतातत्त्वज्ञान हो जानेके बाद मनुष्य तत्त्वमें लीन हो जाता है या वैकुण्ठमें जाता है ?


स्वामीजीदोनों ही बातें हैं । भक्तकी जैसी इच्छा होती है, वैसा होता है । अगर भगवान्‌पर छोड़ दे तो और बढ़िया है ! अपनी कुछ भी इच्छा रखे ही नहीं कि कहाँ जाना है, क्या करना है । अपने-आपको ही भगवान्‌में लीन कर दे तो अपनी इच्छा कहाँ रही !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे