(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒जब परमात्मा सब जगह परिपूर्ण
हैं तो फिर वे दीखते
क्यों नहीं ? दूर क्यों मालूम देते हैं ?
स्वामीजी‒जो उत्पन्न और नष्ट होनेवाली
चीजोंके द्वारा, मन-बुद्धि-इन्द्रियोंके
द्वारा परमात्माकी प्राप्ति करना चाहता है उसको परमात्मा दूर दीखते हैं । परमात्माकी प्राप्ति कर्मोंके द्वारा
नहीं होती,
प्रत्युत अपनेपनके भावसे होती है । अपने-आपको छोड़कर
मन-बुद्धिको लगानेसे उनकी प्राप्ति नहीं होगी । अपने-आपको परमात्मामें लगाओ । आप परमात्माके अंश हो ।
अहम् जाग्रत् और स्वप्नमें रहता है । सुषुप्तिमें अहम्
नहीं रहता,
प्रत्युत अविद्यामें लीन हो जाता है । अविद्यामें लीन होनेपर अहम् आपके
साथ नहीं रहता । अतः आप अहम्से अलग हो । ‘मैं हूँ’‒ऐसा दीखता है, तो दीखनेवाली वस्तु आप नहीं हो । आप देखनेवाले
हो । परन्तु देखनेवाले भी तब होते हो, जब वस्तुको देखते हो ।
जब आप नहीं देखते हो, तब आप देखनेवाले नहीं होते, प्रत्युत आप सत्तामात्र होते हो । अतः आप देखनेवाले (द्रष्टा) भी मत बनो । द्रष्टा बननेसे दृश्यके साथ सम्बन्ध होता है । दृश्यके साथ आपका सम्बन्ध नहीं
है । आपका सम्बन्ध भगवान्के साथ है । इसलिये अपने-आपको भगवान्में
लीन कर दो ।
आप नाशवान् पदार्थोंके द्वारा भगवान्की प्राप्ति चाहते
हैं, इसलिये भगवान् दूर
दीखते हैं । अगर नाशवान् पदार्थोंको छोड़कर ‘मैं भगवान्का हूँ’‒इस प्रकार स्वयं भगवान्में लग जायँ तो भगवान् दूर नहीं दीखेंगे, प्रत्युत नजदीक दीखेंगे । कारण कि मैं भगवान्की चीज हूँ, भगवान्का अंश हूँ,
भगवान्को ही चाहता हूँ । मनसे भगवान्का चिन्तन करना भी एक साधन है, पर यह साधन जल्दी मुक्ति देनेवाला नहीं है । आप खुद भगवान्के हो जायँ । आपके और भगवान्के बीचमें मन, बुद्धि और अहंकार न रहें, तब भगवान्की प्राप्ति होगी । परन्तु मन,
बुद्धि और अहंकारके द्वारा भगवान्को प्राप्त करना चाहोगे तो भगवान्
दूर दीखेंगे ।
बालक माँमें मन नहीं लगाता, प्रत्युत स्वयं लगता
है । इसी तरह साधक स्वयं भगवान्में लग जाय । मन-बुद्धिसे विमुख
होकर भगवान्के सम्मुख हो जाय तो भगवान्की प्राप्ति हो जायगी । जो दूर होनेवाले हैं,
आपके साथ सदा नहीं रहते, उनको अपने साथ मानकर उनके
द्वारा भगवान्की प्राप्ति चाहते हैं, इसलिये भगवान् दूर दीखते
हैं ।
अपने-आपको भगवान्में
लगा दो और कोई इच्छा, कामना मत करो । भगवान्की भी इच्छा नहीं
करनी है ! मैं भगवान्का हूँ तो इच्छा क्या करें ? कोई नहीं कहता कि माँकी
तुम इच्छा करो । मैं माँका हूँ तो इच्छा क्या करें ? बिना चाहे,
बिना विवेक किये मेरी माँ है !
‘मैं भगवान्का हूँ’‒ऐसा माननेसे
मैं-पन मिट जायगा और आपकी जगह भगवान् आ जायँगे ।
श्रोता‒तत्त्वज्ञान हो जानेके बाद मनुष्य
तत्त्वमें लीन हो जाता है
या वैकुण्ठमें जाता है ?
स्वामीजी‒दोनों ही बातें हैं । भक्तकी जैसी इच्छा
होती है, वैसा होता है । अगर
भगवान्पर छोड़ दे तो और बढ़िया है ! अपनी कुछ
भी इच्छा रखे ही नहीं कि कहाँ जाना है, क्या करना है । अपने-आपको ही भगवान्में लीन कर दे तो
अपनी इच्छा कहाँ रही !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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