(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्की तरफ चलनेमें आप अपने अवगुणोंको देखकर निराश
मत हों । हृदयमें विश्वास रखो कि हम कैसे ही हों, भगवान्के
हैं । भगवान्की आशाको दृढ़ रखो कि मेरेको तो भगवान् मिलेंगे
ही ! जैसे किसी ब्राह्मण
अथवा साधुको निमन्त्रण दे दिया, आसनपर बैठा दिया, पाटिया रख दिया, अब भोजन देंगे कि नहीं देंगे‒यह शंका निरर्थक है । अगर भोजन नहीं देना था तो इतना काम क्यों किया ?
क्यों बुलाया ? क्यों बैठाया ? क्यों पाटा रखा ? ऐसे ही आपको कलियुगके समयमें यहाँ गंगाके
किनारे बुलाया, जबकि लोग विश्वासघात कर रहे हैं, अपने साथियोंके साथ भी द्वेष कर रहे हैं, भला करनेवालोंके
प्रति बुरा कर रहे हैं, कृतघ्न हो रहे हैं, ऐसे जमानेमें हमारेको उत्तराखण्डकी भूमिमें, सेठजीकी
तपोभूमिमें, गंगाजीके किनारे लाकर बैठा दिया ! कोई दो-तीन दिन भी गंगाजीके किनारे रहकर आये तो गाँववाले
सब उनको नमस्कार करते और कहते कि गंगावासी आये हैं ! अभी आप महीनों
गंगाजीके किनारे रहते हैं तो यह भगवान्की विलक्षण कृपा है ! इसलिये भगवान्की कृपाकी तरफ ध्यान दो और निराश मत होओ । अपना काम भगवान् करेंगे;
क्योंकि उन्होंने निमन्त्रण दे दिया तो अब भोजन नहीं देंगे ?
हमारेको क्यों बुलाया ? ‘न्योतो
स्वामी सिंह बराबर अणन्योतो है गाय’ बिना निमन्त्रण आया व्यक्ति
गायकी तरह और निमन्त्रण देकर बुलाया व्यक्ति सिंहकी तरह होता है कि निमन्त्रण दिया
है तो लाओ ! गंगाजीके किनारे, उत्तराखण्डकी
भूमिमें, सेठजीकी तपोभूमिमें हमारेको बुलाया है तो आपको हमारा
उद्धार करना पड़ेगा ! नहीं तो क्यों बुलाया ? हमने कब कहा कि बुलाओ ? ऐसे घोर कलियुगमें हम सब छोड़कर
आपके पास यहाँ क्यों आये ? आपको कल्याण करना ही पड़ेगा । इस तरह भगवान्में अपनापन करके एहसान करे तो भगवान् राजी होते हैं
!
हम भले ही सब तरहसे खराब हैं, पर घर छोड़कर यहाँ गंगाजीके
किनारे आये हैं तो इस एक बातके कारण भगवान्को हमारा कल्याण
करना पड़ेगा । केवड़ेके पौधेमें अनेक अवगुण होते हैं, पर
एक सुगन्धरूप गुण उसके सब अवगुणोंको ढक देता है‒
व्यालाश्रयापि विफलापि सकण्टकापि
वक्रापि पङ्किलभवापि दुरासदापि ।
ग्न्धेन बन्धुरसि
केतकि
सर्वजन्तो-
रेको गुणः खलु निहन्ति समस्तदोषान्
॥
(चाणक्यनीति॰ ७ । २१)
‘हे केतकि ! यद्यपि
तू साँपोंका घर है, फलसे भी रहित है, काँटोंसे
भी युक्त है, टेढ़ी भी है, कीचडमें उत्पन्न
होती है, कठिनतासे मिलती है, तथापि तू एक
सुगन्धरूपी गुणके कारण सब प्राणियोंकी प्रिय हो रही है । इससे निश्चय होता है कि एक
भी गुण समस्त दोषोंका नाश कर देता है ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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