(गत ब्लॉगसे आगेका)
जड़के द्वारा चेतनकी प्राप्ति नहीं हो सकती‒यह बात मैं बहुत वर्षोंसे
कह रहा हूँ । मेरेको प्रमाण मिलनेसे यह बात सबल होती है‒यह बिल्कुल
सही बात है । कई बातें ऐसी हैं, जो मेरे भीतर बैठी हैं और प्रमाण
मिलनेपर सबल होती हैं । एक बात और बैठी हुई है, पर उसका विशेष
प्रमाण मेरेको मिला नहीं ! संसारमें गुणदृष्टि भी होती है और
दोषदृष्टि भी होती है । उस दोषदृष्टिके विषयमें मेरेको एक बात जँची हुई है कि तत्त्वज्ञ, जीवमुक्त, सन्त-महात्मामें अगर
दोषदृष्टि हो जाय तो उनमें कोई गुण दीखेगा ही नहीं ! दूसरी
जगह दोषदृष्टि होनेपर गुण भी दीखेगा और दोष भी दीखेगा । परन्तु जिनमें गुण-ही-गुण हैं, दोष है ही नहीं,
उन जीवन्मुक्त महात्मामें दोषदृष्टि होनेपर कोरा दोष-ही-दोष दीखेगा, गुण दीखेगा ही नहीं
। यह मेरे भीतर जँची हुई बात है । नारदजीने भी भगवान्से कहा‒‘सदा कपट व्यवहारु’ (मानस, बाल॰ १३६) ‘आप सदा ही कपटका व्यवहार करते हो । कपटके
बिना कोई व्यवहार किया ही नहीं !’
कम-से-कम आप इतनी बात मान
लें कि सब भगवान् हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) । यह बात सभी सत्संग करनेवालोंके भीतर जँच जानी चाहिये । यह सब संसार परमात्मासे
ही निकला है । परमात्माके सिवाय और कहींसे आया हो तो बताओ ? परमात्मासे
निकला है तो फिर दूसरी चीज कहाँसे आयी ? गेहूँके पौधेमें गेहूँके
सिवाय और क्या है, बताओ ? संसार बनानेके
लिये भगवान्ने कहींसे माल मँगाया हो‒ऐसा कहीं भी हमारे पढ़ने-सुननेमें नहीं आया । उपनिषदोंमें आया है कि वह एक ही अनेकरूपसे प्रकट हुआ है‒‘सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (छान्दोग्य॰ ६ । २ । ३) । जब एक ही परमात्मा अनेकरूपसे हुए तो
अनेकरूपसे परमात्मा ही हुए । दूसरी चीज आये कहाँसे ? वे इतने रूपसे प्रकट हुए कि आप गिनती
नहीं कर सकते, आपकी गिनती समाप्त हो जायगी !
श्रोता‒गंदी-से-गंदी,
मैली-से-मैली चीज है,
जिसको देखते ही घृणा होती है,
उसको परमात्मा कैसे मानें
?
स्वामीजी‒गीता कहती है‒
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च
ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥
(गीता ७ ।
१२)
‘जितने भी सात्त्विक भाव हैं और जितने
भी राजस तथा तामस भाव हैं, वे सब मुझसे ही होते हैं‒ऐसा उनको समझो । परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं ।’
राजस-तामस भाव भी मेरेसे होते हैं‒ऐसा कहनेके बाद बाकी क्या बचा ?
श्रोता‒राजस-तामस तो भाव हुए । भाव
इतने गन्दे नहीं हैं, पर गलीमें गन्दे पदार्थ पड़े हों तो ?
स्वामीजी‒भाव ही तो गंदा है ! भावके सिवाय और कोई
गंदी चीज है ही नहीं ! भगवान्ने साफ कहा है कि मैं उनमें और
वे मेरेमें नहीं हैं । तात्पर्य है कि उनमें मेरेको ढूँढ़ोगे तो मैं मिलूँगा नहीं ।
इसका अर्थ यह हुआ कि सात्त्विक, राजस और तामस एक जातिके हैं !
सात्त्विक-से-सात्त्विक और
तामस-से-तामस एक जातिके हैं ! पृथ्वी और अहंकार एक जातिके हैं‒‘भूमिरापोऽनलो
वायुः॰’ (गीता ७ ।
४) ! मिट्टीका ढेला कहो, चाहे अहंकार कहो, दोनों भगवान्की अपरा प्रकृति होनेसे
भगवान्का स्वरूप हैं । विचार करो, कोई गंदी-सें-गंदी चीज है, पर वह भगवान्के
सिवाय आयी कहाँसे ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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