।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७५, बुधवार
                    एकादशी-व्रत कल है
                    मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

जड़के द्वारा चेतनकी प्राप्ति नहीं हो सकतीयह बात मैं बहुत वर्षोंसे कह रहा हूँ । मेरेको प्रमाण मिलनेसे यह बात सबल होती हैयह बिल्कुल सही बात है । कई बातें ऐसी हैं, जो मेरे भीतर बैठी हैं और प्रमाण मिलनेपर सबल होती हैं । एक बात और बैठी हुई है, पर उसका विशेष प्रमाण मेरेको मिला नहीं ! संसारमें गुणदृष्टि भी होती है और दोषदृष्टि भी होती है । उस दोषदृष्टिके विषयमें मेरेको एक बात जँची हुई है कि तत्त्वज्ञ, जीवमुक्त, सन्त-महात्मामें अगर दोषदृष्टि हो जाय तो उनमें कोई गुण दीखेगा ही नहीं ! दूसरी जगह दोषदृष्टि होनेपर गुण भी दीखेगा और दोष भी दीखेगा । परन्तु जिनमें गुण-ही-गुण हैं, दोष है ही नहीं, उन जीवन्मुक्त महात्मामें दोषदृष्टि होनेपर कोरा दोष-ही-दोष दीखेगा, गुण दीखेगा ही नहीं । यह मेरे भीतर जँची हुई बात है । नारदजीने भी भगवान्‌से कहा‘सदा कपट व्यवहारु’ (मानस, बाल १३६) ‘आप सदा ही कपटका व्यवहार करते हो । कपटके बिना कोई व्यवहार किया ही नहीं !

कम-से-कम आप इतनी बात मान लें कि सब भगवान् हैं‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) यह बात सभी सत्संग करनेवालोंके भीतर जँच जानी चाहिये । यह सब संसार परमात्मासे ही निकला है । परमात्माके सिवाय और कहींसे आया हो तो बताओ ? परमात्मासे निकला है तो फिर दूसरी चीज कहाँसे आयी ? गेहूँके पौधेमें गेहूँके सिवाय और क्या है, बताओ ? संसार बनानेके लिये भगवान्‌ने कहींसे माल मँगाया होऐसा कहीं भी हमारे पढ़ने-सुननेमें नहीं आया । उपनिषदोंमें आया है कि वह एक ही अनेकरूपसे प्रकट हुआ है‘सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (छान्दोग्य ६ । २ । ३) जब एक ही परमात्मा अनेकरूपसे हुए तो अनेकरूपसे परमात्मा ही हुए । दूसरी चीज आये कहाँसे ? वे इतने रूपसे प्रकट हुए कि आप गिनती नहीं कर सकते, आपकी गिनती समाप्त हो जायगी !

श्रोतागंदी-से-गंदी, मैली-से-मैली चीज है, जिसको देखते ही घृणा होती है, उसको परमात्मा कैसे मानें ?

स्वामीजीगीता कहती है‒

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि     न त्वहं तेषु ते मयि ॥
                                     (गीता ७ । १२)

‘जितने भी सात्त्विक भाव हैं और जितने भी राजस तथा तामस भाव हैं, वे सब मुझसे ही होते हैंऐसा उनको समझो । परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं ।’

राजस-तामस भाव भी मेरेसे होते हैंऐसा कहनेके बाद बाकी क्या बचा ?

श्रोताराजस-तामस तो भाव हुए । भाव इतने गन्दे नहीं हैं, पर गलीमें गन्दे पदार्थ पड़े हों तो ?


स्वामीजीभाव ही तो गंदा है ! भावके सिवाय और कोई गंदी चीज है ही नहीं ! भगवान्‌ने साफ कहा है कि मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं हैं । तात्पर्य है कि उनमें मेरेको ढूँढ़ोगे तो मैं मिलूँगा नहीं । इसका अर्थ यह हुआ कि सात्त्विक, राजस और तामस एक जातिके हैं ! सात्त्विक-से-सात्त्विक और तामस-से-तामस एक जातिके हैं ! पृथ्वी और अहंकार एक जातिके हैं‘भूमिरापोऽनलो वायुः॰’ (गीता ७ । ४) ! मिट्टीका ढेला कहो, चाहे अहंकार कहो, दोनों भगवान्‌की अपरा प्रकृति होनेसे भगवान्‌का स्वरूप हैं । विचार करो, कोई गंदी-सें-गंदी चीज है, पर वह भगवान्‌के सिवाय आयी कहाँसे ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे