श्रोता‒भगवान्में
लगन नहीं लगती !
स्वामीजी‒लगन नहीं लगती‒इस बातका दुःख होना चाहिये । भूख नहीं लगती तो भूखकी भूख तो लगनी
चाहिये । केवल विचार करें कि मेरी लगन कैसे लगे,
तो लगन लग जायगी । दो-दो,
चार-चार मिनटमें विचार करो । पर इसकी परवाह ही नहीं है,
फिर लगन कैसे लगे ? मेरी लगन लग जाय‒इसकी लगन लग जाय तो जरूर लगन लग जायगी ।
काम, क्रोध आदि दोष कैसे दूर हों
? और भगवान्में प्रेम कैसे हो ?‒ये दोनों बातें मैं कहता हूँ । जिसके होनेका दुःख हो
जाय, वह दूर हो जायगा और जिसके न होनेका दुःख हो, वह
होने लग जायगा । यह मेरी देखी हुई
बात है ! वर्षोंतक मेरे मनमें रही कि यह कैसे दूर हो
? चालीस-पचास वर्ष बीत गये,
दूर नहीं हुआ ! पर अन्तमें भगवान्की कृपासे दूर हो गया ! इससे
ज्यादा और मैं क्या कहूँ ? अगर ढिलाई न हो, जोरदार
दुःख हो जाय तो एक दिनमें दूर हो सकता है । यह सबके लिये बड़ी मार्मिक बात है !
श्रोता‒जब
शरीरमें तकलीफ होती है, तब
भगवान्की याद नहीं रहती । उस समय भगवान्की याद कैसे रहे ?
स्वामीजी‒ध्यान देना, तकलीफसे जो फायदा होता है,
वह सुखसे होता ही नहीं । प्रतिकूलतासे
जो फायदा होता है, वह अनुकूलतासे होता ही नहीं, यह
नियम है । दुःखसे जरूर फायदा
होता है । पुराने पाप कटते हैं और नयी उन्नति होती है । दुःखसे नुकसान होता ही नहीं
।
श्रोता‒एक
बार भगवान्का अनुभव हो गया । अब दुबारा भगवान्का अनुभव नहीं होता है, क्या
कारण है ?
स्वामीजी‒अनुभव हुआ नहीं है ! अनुभव एक ही बार होता है । एक बार अनुभव होनेपर दुबारा अनुभव
होनेकी जरूरत ही नहीं है ।
श्रोता‒अभिमानशून्य
अहंकार क्या है ?
स्वामीजी‒अभिमानशून्य अहंकार केवल व्यवहारके लिये है । जैसे नाटकमें हरिश्चन्द्र बना हुआ
आदमी कहता है कि ‘मैं हरिश्चन्द्र हूँ’
तो यह अभिमानशून्य अहंकार है । अभिमानशून्य अहंकारके बिना वह
हरिश्चन्द्रका स्वाँग कैसे करेगा ?
खास बात यह है कि आपको अपनी स्थितिसे सन्तोष न हो । अपनी स्थितिमें सन्तोष न होना, व्याकुलता
होना बहुत बढ़िया चीज है । परमात्मा कैसे हैं‒यह निर्णय करनेकी जरूरत नहीं है । परमात्मा हैं‒इतना ही जाननेकी आवश्यकता है । इसीमें आपकी दृढ़ता होनी चाहिये ।
वे कहाँ हैं, क्या करते हैं, कैसे
हैं, सगुण हैं कि निर्गुण हैं, साकार
हैं कि निराकार है‒इन बातोंको जाननेकी जरूरत नहीं है । परमात्माको कोई जान सकता ही नहीं । परमात्माकी प्राप्तिमें
बुद्धिमानीकी जरूरत नहीं है । व्याकुलता होनी चाहिये । रात-दिन भगवान्को ‘हे नाथ ! हे नाथ !’ पुकारो कि ‘महाराज ! मैं आपके पास आना चाहता हूँ । मुझे यहाँ सन्तोष नहीं
है !’ संसारमें (धन-सम्पत्ति, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदिसे) सन्तोष न हो‒यह बहुत बढ़िया बात है ।
सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः
स्वदारे भोजने धने ।
त्रिषु चैव न कर्तव्यः स्वाध्याये जपदानयोः ॥
(चाणक्यनीतिदर्पण
७ । ४)
‘अपनी स्त्री, भोजन और धन‒इन तीनोंमें तो सन्तोष करना चाहिये, पर स्वाध्याय, जप और दान‒इन तीनोंमें कभी सन्तोष नहीं करना चाहिये
।’
सांसारिक वस्तुओंमें तो प्रारब्ध काम करता है,
पर भगवान्के विषयमें प्रारब्ध काम नहीं करता,
प्रत्युत भीतरकी लगन,
व्याकुलता काम करती है ।
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