श्रोता‒जब
कीर्तन, माला-जप करते हैं, तब
तो भगवान् याद आते हैं, पर
दूसरे काममें लग जाते हैं तो भगवान्को भूल जाते हैं, क्या
करना चाहिये ?
स्वामीजी‒भीतरकी लगन नहीं है । भीतरमें लगन न हो तो बाहरसे किया साधन काम नहीं देता । भीतरसे
भगवान्की भूख होनेपर ही भगवान् याद आते हैं । इसलिये विचारपूर्वक भीतरकी लगन लगाओ
। विचार करो कि हमारा समय किसमें लग रहा है
? आप उपाय पूछते हो,
पर वास्तवमें उपाय काम नहीं देते,
भीतरकी लगन काम देती है । भीतरकी चाहना आप बार-बार विचार करके
जाग्रत् कर सकते हो । दिनभर विचार करो कि मन कैसे लगे......मन कैसे लगे
? जरूर लग जायगा । कारण कि भगवान्की
प्राप्तिके लिये ही मनुष्यजन्म मिला है । वह काम नहीं होगा तो और क्या होगा
? मन कैसे लगे......मन कैसे लगे‒यह
प्रश्न ही इसका उत्तर है ।
श्रोता‒चार-पाँच
सालसे बार-बार बाधा पड़ रही है, क्या
करना चाहिये ?
स्वामीजी‒आप तो करते रहो, छोड़ो मत । एक श्लोक आता है‒
प्रारभ्यते न खलु विध्नभयेन
नीचैः
प्रारभ्य विघ्नविहता
विरमन्ति मध्याः ।
विघ्नैः पुनः पुनरपि
प्रतिहन्यमानाः
प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति
॥
(मुद्राराक्षस
२ । १७)
‘नीच मनुष्य विघ्नोंके डरसे कार्यका आरम्भ ही नहीं करते हैं । मध्यम श्रेणीके मनुष्य
कार्यका आरम्भ तो कर देते हैं, पर विघ्न आनेपर उसे छोड़ देते हैं । परन्तु उत्तम
गुणोंवाले मनुष्य बार-बार विघ्न आनेपर भी अपना कार्य छोड़ते नहीं ।’
आजकल अच्छा संग, सत्संग नहीं मिलता । कथा करनेवाले,
व्याख्यान देनेवाले भी वह बात कहते हैं,
जिससे लोग ज्यादा इकट्ठे हो जायँ,
लोग राजी हो जायँ और पैसा अधिक आये । लोगोके
कल्याणकी बातोंकी तरफ ख्याल ही नहीं है । सत्संगकी बात ही दुर्लभ
हो गयी है । आध्यात्मिक बातें जानते ही नहीं,
जानना चाहते ही नहीं । आजकल अच्छा
सत्संग मिलना बहुत दुर्लभ हो गया है ! पहले आध्यात्मिक पत्रोंमें जैसे लेख आते
थे, वैसे लेख अब नहीं आते । अच्छे लेखक विद्वान् अनुभवी आदमी संसारमात्रमें बहुत कम
रह गये हैं । साधु बहुत कम रह गये, और साधुओंमें भी साधुता बहुत कम रह गयी है ! हमारा क्या कर्तव्य है, हमें
क्या करना चाहिये‒ऐसा विचार करनेवाले बहुत कम रह गये ! सत्संगमें आनेवाले भाई-बहनोंमें भी अच्छे विचारवाले बहुत कम
हो गये हैं ! आप खुद पक्का विचार कर लो कि हमें ठीक बनना है तो जरूर ठीक बन सकते हो
। दूसरा आपको ठीक नहीं बना सकता ।
सत्संगका बड़ा असर पड़ता है । सत्संग सुने तो मूर्खता नहीं रह
सकती ।
मति कीरति गति भूति
भलाई ।
जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ ।
लोकहुँ बेद न आन उपाऊ ॥
(मानस, बाल॰ ३ । ३)
‘संसारमें जिसने जिस समय जहाँ-कहीं भी जिस-किसी यत्नसे बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है,
वह सब सत्संगका ही प्रभाव समझना चाहिये । वेदोंमें
और लोकमें इनकी प्राप्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं है ।’
मूर्खता इसी कारण रहती है कि अच्छे सन्त-महात्माओंका सत्संग
नहीं मिला ।
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