(गत ब्लॉगसे आगेका)
चौरासी लाख योनियोंमें किसी भी
शरीरके साथमें आज आपका मोह नहीं है तो इस शरीरके साथमें आप मोह क्यों रखते हैं ? इसपर विचार करो तो
बड़ा भारी लाभ है ! देहका अभिमान रखनेपर सब दोष आ जाते हैं‒‘देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति’ । देहका अभिमान छोड़ दो तो दोष मिट जायँगे । आपने चौरासी लाख योनियाँ छोड़
दीं तो यह शरीर भी छोड़ना पड़ेगा । कोई है माईका लाल जो कहे कि मैं यह शरीर नहीं
छोडूंगा !
विचार करें, जो चीज
मिलनेवाली है, वह मिलेगी ही और जो नहीं मिलनेवाली है,
वह नहीं मिलेगी तो फिर कामना करनेका क्या उपयोग हुआ ? लोग दुःख पा रहे
हैं तो क्या वे दुःखकी कामना करते हैं ? बीमारी आ जाती है तो
क्या वे बीमारीकी कामना करते हैं ? बिना चाहे मकान गिर जाता
है, चोट लग जाती है । ऐसे ही धन भी बिना चाहे मिल जाता है ।
जमीन खोदनेपर धन मिल जाता है । हैदराबादमें एक तिजोरी नदीमें बहकर आ गयी और उसको
पानेवाला व्यक्ति धनी बन गया । यह सच्ची घटना है !
प्राप्तव्यमर्थं लभते
मनुष्या
दैवोऽपि तं लङ्घयितुं न
शक्तः ।
तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे
यदस्मदीयं न हि
तत्परेषाम् ॥
(पंचतंत्र
२ । ११३; गरुड़पुराण आचार॰ ११३ । ३२)
‘प्राप्त होनेवाली
वस्तु मनुष्यको मिलती ही है, विधाता भी उसको रोकनेमें समर्थ
नहीं है । इसलिये न तो (वस्तु न मिलनेपर) मैं शोक करता हूँ और न (वस्तु मिलनेपर) मुझे आश्चर्य ही होता है; क्योंकि जो वस्तु मेरी है,
उसे दूसरा कोई नहीं ले सकता ।’
ये चार बातें याद रखो । जो चीज हमारे पास आनेवाली है, वह चाहो तो भी
आयेगी, न चाहो तो भी आयेगी । जो नहीं आनेवाली है, वह चाहो तो भी नहीं आयेगी, न चाहो तो भी नहीं आयेगी
। इसलिये कामना करना निरर्थक है । आप कामनारहित हो जाओ
तो आपको कोई कमी नहीं रहेगी । आप सन्त-महात्मा हो जाओगे !
आपका स्वरूप ज्ञानमात्र है । जाननामात्र आपका स्वरूप
है, जाननेवाला आपका
स्वरूप नहीं । जैसे यह प्रकाश है, ऐसे ज्ञानका एक प्रकाश है
। वह प्रकाशरूप आप हो । आप प्रकाश करनेवाले नहीं हो । जैसे सूर्यके प्रकाशमें सब
काम होते हैं, पर सूर्यमें प्रकाश करनेका अभिमान नहीं है ।
तात्पर्य है कि सूर्य सम्पूर्ण संसारको प्रकाशित करता है, पर
‘मैं प्रकाशित करता हूँ’‒यह अभिमान
सूर्यमें नहीं है । जितने भाई-बहन हैं, सबका स्वरूप परमात्माका अंश है । आपका स्वरूप केवल सत्तामात्र (होनापन) है । सत्तावाले आप नहीं हो । उस सत्तामात्र
स्वरूपमें अहंकार नहीं है, कर्तृत्व-भोकृत्व
नहीं है । कर्तृत्व-भोक्तृत्व संसार है ।
सूर्यके प्रकाशमें एक वेदपाठ करता है, एक शिकार करता है
। परन्तु वेदपाठ करनेका पुण्य और शिकार करनेका पाप सूर्यको नहीं लगता । प्रकाश
उनसे लिप्त नहीं होता । ऐसे ही आप मिट्टी अथवा गोबरके
लौंदेकी तरह किसीसे चिपको मत, प्रत्युत रबरकी गेंदकी तरह निर्लिप्त रहो । चिपकना ही पाप है, बन्धन है । प्राप्तकी ममता और अप्राप्तकी कामना करना ही चिपकना है ।
इसलिये सब विहित कार्य निर्लेप होकर करो ।
भगवत्प्राप्तिमें सांसारिक सुखकी आसक्ति बड़ी बाधक है
। सुखकी चाहना मूलमें भगवान्की चाहना है । भगवान्की चाहनाको न समझनेसे संसारसे
सुखकी आशा होती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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