।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७५, बुधवार
                    मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

चौरासी लाख योनियोंमें किसी भी शरीरके साथमें आज आपका मोह नहीं है तो इस शरीरके साथमें आप मोह क्यों रखते हैं ? इसपर विचार करो तो बड़ा भारी लाभ है ! देहका अभिमान रखनेपर सब दोष आ जाते हैंदेहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति । देहका अभिमान छोड़ दो तो दोष मिट जायँगे । आपने चौरासी लाख योनियाँ छोड़ दीं तो यह शरीर भी छोड़ना पड़ेगा । कोई है माईका लाल जो कहे कि मैं यह शरीर नहीं छोडूंगा !

विचार करें, जो चीज मिलनेवाली है, वह मिलेगी ही और जो नहीं मिलनेवाली है, वह नहीं मिलेगी तो फिर कामना करनेका क्या उपयोग हुआ ? लोग दुःख पा रहे हैं तो क्या वे दुःखकी कामना करते हैं ? बीमारी आ जाती है तो क्या वे बीमारीकी कामना करते हैं ? बिना चाहे मकान गिर जाता है, चोट लग जाती है । ऐसे ही धन भी बिना चाहे मिल जाता है । जमीन खोदनेपर धन मिल जाता है । हैदराबादमें एक तिजोरी नदीमें बहकर आ गयी और उसको पानेवाला व्यक्ति धनी बन गया । यह सच्ची घटना है !

                  प्राप्तव्यमर्थं    लभते    मनुष्या
                               दैवोऽपि तं लङ‌्घयितुं न शक्तः ।
                  तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे
                               यदस्मदीयं  न  हि तत्परेषाम् ॥
                         (पंचतंत्र २ । ११३; गरुड़पुराण आचार ११३ । ३२)

प्राप्त होनेवाली वस्तु मनुष्यको मिलती ही है, विधाता भी उसको रोकनेमें समर्थ नहीं है । इसलिये न तो (वस्तु न मिलनेपर) मैं शोक करता हूँ और न (वस्तु मिलनेपर) मुझे आश्चर्य ही होता है; क्योंकि जो वस्तु मेरी है, उसे दूसरा कोई नहीं ले सकता ।

ये चार बातें याद रखो । जो चीज हमारे पास आनेवाली है, वह चाहो तो भी आयेगी, न चाहो तो भी आयेगी । जो नहीं आनेवाली है, वह चाहो तो भी नहीं आयेगी, न चाहो तो भी नहीं आयेगी । इसलिये कामना करना निरर्थक है । आप कामनारहित हो जाओ तो आपको कोई कमी नहीं रहेगी । आप सन्त-महात्मा हो जाओगे !

आपका स्वरूप ज्ञानमात्र है । जाननामात्र आपका स्वरूप है, जाननेवाला आपका स्वरूप नहीं । जैसे यह प्रकाश है, ऐसे ज्ञानका एक प्रकाश है । वह प्रकाशरूप आप हो । आप प्रकाश करनेवाले नहीं हो । जैसे सूर्यके प्रकाशमें सब काम होते हैं, पर सूर्यमें प्रकाश करनेका अभिमान नहीं है । तात्पर्य है कि सूर्य सम्पूर्ण संसारको प्रकाशित करता है, पर मैं प्रकाशित करता हूँ’‒यह अभिमान सूर्यमें नहीं है । जितने भाई-बहन हैं, सबका स्वरूप परमात्माका अंश है । आपका स्वरूप केवल सत्तामात्र (होनापन) है । सत्तावाले आप नहीं हो । उस सत्तामात्र स्वरूपमें अहंकार नहीं है, कर्तृत्व-भोकृत्व नहीं है । कर्तृत्व-भोक्तृत्व संसार है ।

सूर्यके प्रकाशमें एक वेदपाठ करता है, एक शिकार करता है । परन्तु वेदपाठ करनेका पुण्य और शिकार करनेका पाप सूर्यको नहीं लगता । प्रकाश उनसे लिप्त नहीं होता । ऐसे ही आप मिट्टी अथवा गोबरके लौंदेकी तरह किसीसे चिपको मत, प्रत्युत रबरकी गेंदकी तरह निर्लिप्त रहो । चिपकना ही पाप है, बन्धन है । प्राप्तकी ममता और अप्राप्तकी कामना करना ही चिपकना है । इसलिये सब विहित कार्य निर्लेप होकर करो ।

भगवत्प्राप्तिमें सांसारिक सुखकी आसक्ति बड़ी बाधक है । सुखकी चाहना मूलमें भगवान्‌की चाहना है । भगवान्‌की चाहनाको न समझनेसे संसारसे सुखकी आशा होती है ।


   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे