(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒जीवन्मुक्त महापुरुषमें
संसारकी कोई आसक्ति रहती नहीं, फिर उनको भगवान्के दर्शन क्यों नहीं होते ?
स्वामीजी‒दर्शनकी इच्छा चाहिये । इच्छाके बिना
दर्शन नहीं होते । जीवन्मुक्त हो जायगा, बन्धन मिट जायगा, शान्ति मिल जायगी, आनन्द रहेगा, दुःख कोई तरहका नहीं रहेगा, पर भगवान्के दर्शन नहीं
होंगे । जैसे, माँकी इच्छा बालक करता नहीं है, प्रत्युत स्वतः माँकी इच्छा होती है, माँ अच्छी लगती
है, प्यारी लगती है । ऐसे ही स्वतः भगवान्के दर्शनकी इच्छा होनी
चाहिये ।
वास्तवमें जीवन्मुक्त महापुरुषको भगवान्के दर्शनकी कोई
जरूरत ही नहीं है । उसमें कोई कमी नहीं है । उसमें केवल प्रेमकी कमी रहती है । प्रेम
भक्तिमें है ।
श्रोता‒तत्त्वज्ञान और भगवत्प्राप्ति एक हैं या अलग-अलग ?
स्वामीजी‒दोनों एक ही हैं । तत्त्वज्ञान हो गया
तो भगवत्प्राप्ति हो गयी, कल्याण हो गया तो भगवत्प्राप्ति हो गयी, भगवान्के दर्शन हो गये तो भगवत्प्राप्ति हो गयी ।
श्रोता‒‘राम नाम अवलंबन एकू’ एक राम-राम करता रहे तो क्या उससे
कल्याण हो जायगा ?
स्वामीजी‒बिल्कुल हो जायगा, पर साथमें भाव पूरा
चाहिये । भावके बिना नहीं होगा ।
श्रोता‒ भाव फिर क्या हो ?
स्वामीजी‒भगवान् मेरे हैं, और कोई मेरा नहीं है‒यह भाव हो ।
मूलमें जितने अंशमें संसारको पकड़ रखा है, उतने अंशके त्यागकी
आवश्यकता है । त्याग करनेके लिये परमात्मामें रुचि होनेकी आवश्यकता है । जो परमात्माकी
रुचि है, उसी जगह संसारकी आसक्ति पैदा हुई है । भीतरमें भूख
(आवश्यकता) तो थी परमात्माकी, पर संसारके पदार्थोंकी भूख पैदा कर ली । परमात्माकी आवश्यकताको भूल गये और
संसारकी कामना करने लगे । परमात्माकी आवश्यकता जाग्रत् हो जाय तो संसारकी कामना मिट
जायगी । आवश्यकताकी पूर्ति होती ही है और कामनाकी निवृत्ति होती ही है । कामनाओंकी पूर्ति जन्म-जन्मान्तरोंतक कभी होती ही नहीं ! उनका तो त्याग ही करना
पड़ेगा ।
जड़ताकी तरफ वृत्ति मनुष्यको अन्धा बनाती
है, विवेक नहीं
होने देती । जड़ताका त्याग कर दिया जाय तो शान्ति मिलती है, चिन्मयताकी प्राप्ति
होती है । शान्तिसे सुख मिलता है‒‘अशान्तस्य
कुतः सुखम्’ ।
श्रोता‒‘मनीषीकी लोकयात्रा’ पुस्तकमें लिखा है
कि परलोकमें रामकृष्ण परमहंस मिले, अमुक-अमुक व्यक्ति मिले और उनकी आपसमें
पहचान भी हुई, तो प्रश्न यह है कि जब
यह शरीर छूट जाता है,
तब
शरीरकी आकृति भी यहीं रह
जाती है, फिर परलोकमें किस आकृतिसे
आपसमें मिलना होता है ?
स्वामीजी‒वह आकृति और तरहकी होती है । आकाशमें
अलग-अलग भवन हैं । वह आकृति
आकाशमें होती है । उनका शरीर पार्थिव दीखता है, पर वास्तवमें
वह पार्थिव नहीं होता । उनकी आकृति, उनका चेहरा पहले-जैसा ही होता है । भूत-प्रेतकी आकृति भी वैसी ही रहती
है । मृत्युके समय जैसा कपड़ा होता है, वैसा ही कपड़ा भूत-प्रेतमें दीखता है । भूत-प्रेतका वायुप्रधान शरीर होता
है । देवताओंका शरीर तेजप्रधान होता है । जिस धातुका सूर्य है, उसी धातुका देवताओंका शरीर होता है । हमारा शरीर पृथ्वीप्रधान है । वरुणदेवता
आदिका शरीर जलप्रधान है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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