।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
अधिक ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदा, 
                 वि.सं.-२०७५, बुधवार
 अनन्तकी ओर     


मनुष्यमें जो सेवा करनेकी, सबको सुख पहुँचानेकी शक्ति है, वह देवताओंमें भी नहीं है । वह मनुष्योंको भी तृप्त करता है और भगवान्‌को भी तृप्त करता है, उनकी भी भूख मिटाता है ! भगवान् प्रेमभावके भूखे हैं । इसलिये भगवान्‌के दरबारमें ऊँचे-से-ऊँचे मनुष्य हैं ! मनुष्यमें यह शक्ति भी भगवान्‌की दी हुई है, उसकी खुदकी नहीं है । मनुष्यको शक्ति देकर भगवान् खुद छोटे बन जाते हैं‒मैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि’ ! परन्तु भक्त अपनेको बड़ा नहीं मानता । भक्त भगवान्‌का भक्त होता है और भगवान् भक्तके भक्त होते हैं ! भगवान् भक्तभक्तिमान्’ हैं‒‘एवं स्वभक्तयो राजन् भगवान् भक्तभक्तिमान्’ (श्रीमद्भा १० । ८६ । ५९) । हरेक आदमी दूसरेको चेला बनाता है, पर भगवान् गुरु बनाते हैं ! यह भगवान्‌की उदारता है कि दूसरेको सब कुछ देकर भी उसे अपने अधीन नहीं बनाते, प्रत्युत मालिक बनाते हैं ।

भगवान् कहते हैं कि भक्त ऊँचे हैं, भक्तोंकी भक्ति करो, उनकी शरणमें जाओ और भक्त कहते हैं कि भगवान्‌की शरणमें जाओ, पर भीतरसे दोनों एक हैं ! यह ठगाईकी रीति है ! भीतरसे दोनों एक हैं, पर बाहरसे दूकानें दो हैं । वह कहता है कि उस दूकानमें जाओ, वह दूकान अच्छी है और यह कहता है कि उस दूकानमें जाओ, वह दूकान अच्छी है ! भीतरसे दोनों दूकानें अपनी हैं !

जैसे माँको बच्‍चा प्यारा होता है, ऐसे ही भगवान्‌को भक्त बड़ा प्यारा होता है । भक्तको देखकर भगवान् प्रसन्न होते हैं ! वे भक्तको छिप-छिपकर देखते हैं ‒प्रभु देखैं तरू ओट लुकाई’ (मानस, अरण्य १० । ७) ! दुनियाको आनन्द भगवान् देते हैं, पर भगवान्‌को आनन्द भक्त देता है !

परमात्माकी प्राप्ति चाहनेवालोंके लिये बहुत ही सुगम मार्ग है कि हम जो भी काम कर रहे हैं, भगवान्‌का काम कर रहे हैं । भगवान् कहते हैं‒

यत्करोषि यदश्नासि यज्‍जुहोषि ददासि यत् ।
 यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्‍व मदर्पणम् ॥
 शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
 सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥
                                             (गीता ९ । २७-२८)

हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे । इस प्रकार मेरे अर्पण करनेसे कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा । ऐसे अपने-सहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे ही प्राप्त हो जायगा ।’


भगवान्‌का काम करते ही आपकी अशुद्धि चली जायगी और शुद्धि आ जायगी । आप स्वतः-स्वाभाविक पवित्र हो जाओगे । आपके द्वारा कोई निषिद्ध काम नहीं होगा । आपका हरेक काम भजन हो जायगा । मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌का काम करता हूँ‒यह ध्यानसे भी ऊँची चीज है ! कारण कि यह करणनिरपेक्ष है । ध्यानमें मन लगाते हैं, इसलिये वह करणसापेक्ष है । करणसापेक्षवाला साधक योगभ्रष्‍ट हो सकता है, पर करणनिरपेक्षवाला साधक योगभ्रष्‍ट नहीं हो सकता । हमारा मन भगवान्‌में लगा तो हमारे और भगवान्‌के बीचमें मन आ गया ! हमारा भगवान्‌के साथ सीधा सम्बन्ध हो तो यह करणनिरपेक्ष है, पर बीचमें मन-बुद्धि आ जायँगे तो यह करणसापेक्ष हो जायगा ।