एक गाँवमें दो ठाकुर थे । दोनोंका आधा-आधा गाँव था । एक ठाकुर
तो साधन-भजन, सत्संग करनेवाला था,
पर दूसरा ऐसा नहीं था । एक दिन उसके मनमें आया कि दूसरा कथा
कराता है तो मैं भी कथा कराऊँ । उसने ब्राह्मणको बुलाया और कहा कि महाराज,
हमारे यहाँ रामायणकी कथा कर दो । उसने कहा कि ठीक है,
कर देंगे; आप भी कथा सुनना । ठाकुरने कहा कि मैं नहीं सुनूँगा;
क्योंकि मेरा आपपर विश्वास है कि आप ठीक कथा करेंगे । कथामें
तो इसलिये बैठते हैं कि विश्वास नहीं है कि ये कथा ठीक करेंगे या नहीं,
इसलिये वे परीक्षा करनेके लिये बैठते हैं । मैं आपपर विश्वास
करता हूँ, इसलिये सुननेकी जरूरत नहीं ।
जब कथाका अन्तिम दिन आया,
तब ब्राह्मणके कहनेपर ठाकुर कथामें आया । कथाकी समाप्तिपर ब्राह्मणने
ठाकुरसे कहा कि कोई बात पूछनी हो तो पूछो । ठाकुर बोला कि रामायण तो मेरी सुनी हुई
है कि एक राम था और एक रावण था, पर एक शंका है कि उनमें राक्षस कौन था
? राम राक्षस था या रावण राक्षस
था ? ब्राह्मण बोला कि न राम राक्षस था, न रावण राक्षस था; एक राक्षस तो तू है और एक राक्षस मैं हूँ !
चालाकीसे कभी कल्याण नहीं होता‒यह सदा याद रखो । सीधा-सरल भाव
होनेसे ही कल्याण होता है । भगवान् कहते हैं‒
सरल सुभाव न मन कुटिलाई ।
जथा लाभ संतोष सदाई ॥
मोर दास कहाइ नर
आसा ।
करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ॥
बहुत कहउँ का कथा बढाई ।
एहि आचरन बस्य मैं
भाई ॥
(मानस, उत्तर॰ ४६ । १-२)
‘सरल स्वभाव हो, मनमें कुटिलता न हो और जो कुछ मिले, उसीमें सदा सन्तोष रखे । मेरा दास कहलाकर यदि कोई मनुष्योंकी आशा करता है तो तुम्हीं
कहो, उसका क्या विश्वास है ? बहुत बात बढ़ाकर क्या कहूँ, हे भाइयो ! मैं तो इसी आचरणके वशमें हूँ ।’
निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा ॥
(मानस,
सुन्दर॰ ४४ । ३)
‘जो मनुष्य निर्मल मनका होता है, वही मुझे पाता है । मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं
सुहाते ।’
श्रोता‒वर्तमान समयमें मांस-मदिराका सेवन बड़ी तेजीसे बढ़
रहा है ! इसको कैसे रोका जाय ?
स्वामीजी‒बात कही जा सकती है, पर रोकना अपने हाथकी बात नहीं है । ये कलियुगके एजेण्ट हैं,
कलियुगके वशमें हैं,
इसलिये हमारी बात मानते नहीं ! ये उल्टी बात मानेंगे,
सुल्टी बात नहीं मानेंगे । हमारी बात मानो तो मांस-मदिराका सेवन सनातन-धर्ममात्रमें बिलकुल नहीं होना चाहिये
।
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