मेरा कुछ नहीं है और मेरेको कुछ नहीं चाहिये‒ये दो बातें मान लो तो
परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी ।
सबसे प्रेम करो । प्रेमसे ही बोलो, प्रेमसे
ही सुनो, प्रेमसे ही देखो, प्रेमसे
ही सबके हितकी बात सोचो । इससे कामनाका नाश हो जायगा । ऐसा प्रेम नहीं कर सको तो
भगवान्का आश्रय लो और (अपने लिये) कुछ मत करो । क्रिया-रहित हो जाओ । कुछ न
करनेसे परमात्मतत्त्व प्राप्त हो जायगा । करनेसे प्रकृतिमें स्थिति होती है । कुछ नहीं करोगे
तो परमात्मामें ही स्थिति होगी । मनसे, वाणीसे, शरीरसे
कुछ करना नहीं है ।
जहाँ आप अपनेको मानते हो, परमात्मा
उससे (मैं-पनसे) भी नजदीक हैं । उसकी प्राप्तिका सुगम उपाय है‒ कुछ मत करो । अभी थोड़ी देरके लिये भी क्रियारहित (चुप) हो जाओ तो आपको
शान्ति मिलेगी । इसके लिये आपको उपाय बताता हूँ । नासिकासे चार-पाँच बार जोरसे श्वास
बाहर निकालकर ठहर जाओ । फिर उस स्थितिमें जितनी देर ठहर सको,
उतना ठहरकर धीरे-धीरे श्वास लेना शुरू करो । दूसरा उपाय,
कुछ देरतक आँखोंकी पलकोंको बार-बार झपकाओ । इससे
संकल्प-विकल्प कट जाते हैं । श्वास और आँखकी इन दोनों क्रियाओंको करो तो तत्काल
शान्ति मिलेगी । तीसरी बात, सब जगह एक ‘है’‒ ऐसा करके चुप हो जाओ । कुछ भी चिन्तन मत करो
। सब जगह परिपूर्ण ‘है’ को पकड़ लो । इसे करोगे तो बड़ा भारी लाभ होगा । बात यह है कि आप पूछ लेते
हैं, सुन लेते हैं, पर करते नहीं ! इसे करके देखो । यह बहुत उत्तम,
बढ़िया साधन है ! इसे करनेके लिये किसी चीजकी जरूरत नहीं ।
करना यह है कि कुछ मत करो । जिससे देश, काल आदिकी दूरी हो,
वह क्रियासे मिलता है । जो सब जगह परिपूर्ण है,
वह क्रियासे नहीं मिलता । जो ‘है’,
वही मेरा है ।
इस साधनको करनेके लिये किसी दूसरे (गुरु)-की आवश्यकता नहीं
है । इससे सुगम साधन बतानेवाला कोई मिलेगा नहीं ! गुरुके नामपर केवल ठगाई होती है
!
कर्मयोग, ज्ञानयोग
और भक्तियोग तीनों योगोंका सार है‒अहंता-ममताका त्याग । अहंता और ममतासे रहित होनेपर ही प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद
होता है तथा परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है । मैं-मेरापनका त्याग ही वास्तवमें
त्याग है । अहंकार छोड़नेमें बड़ी कठिनता पड़ती है । कोई भी साधन करें तो अहंकार
साथमें रहता है । मैं-पनसे प्रकृतिके साथ अभेदपूर्वक सम्बन्ध होता है,
और मेरा-पनसे प्रकृतिके साथ भेदपूर्वक सम्बन्ध होता है । ‘है’ में स्थित होनेसे मैं-पन और मेरा-पन दोनों मिट जाते हैं । जो है,
वह परमात्मा है और जो नहीं है,
वह प्रकृति व उसका कार्य है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते
सतः’ (गीता २ । १६) । जो प्रकृतिसे रहित है,
उस ‘है’ में बड़ी सुगमतासे स्थिति हो सकती है ।
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