प्रकृति कभी क्रियारहित होती ही नहीं । प्रकृति तथा उसके कार्यमें
निरन्तर क्रिया होती है, पर परमात्मा सर्वथा क्रियारहित है । प्रकृति अस्वाभाविक है,
पर परमात्मा स्वाभाविक है । मैं-मेरापन प्रकृतिका विभाग है ।
उस परमात्माकी प्राप्तिमें क्रिया और पदार्थ कारण नहीं हैं । क्रिया और पदार्थसे रहित
होते ही परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी । क्रिया और पदार्थ परमात्मप्राप्तिमें बाधक
हैं । यह जरा गहरी बात है ! इसलिये आप ‘है’ को पकड़े । ‘है’ में स्थित हो गये तो आप परमात्मामें स्थित हो गये । उस ‘है’ को पकड़नेके लिये आप निष्क्रिय हो जायँ । वास्तवमें उस ‘है’ में मात्र प्राणियोंकी स्वतःसिद्ध स्थिति है,
पर उधर ध्यान नहीं है ।
प्रत्येक क्रिया ‘है’ से अर्थात् अक्रियतासे पैदा होती है । वह ‘है’ स्वतः-स्वाभाविक है । वह कृत्रिम,
बनावटी नहीं है । उसमें अहंकार नहीं है । सभी संकल्प ‘है’ से पैदा होते हैं । प्रत्येक कार्यका आरम्भ ‘है’ से होता है और कार्य समाप्त होनेपर ‘है’ ही रहता है । अतः ‘है’ सबके मूलमें है । ‘है’ अखण्ड रहता है । क्रियाके समय भी ‘है’ रहता है । परन्तु हमारा ध्यान क्रियाकी तरफ रहता है,
‘है’
की तरफ नहीं । वह ‘है’ साक्षात्
परमात्माका स्वरूप है । इस बातको हृदयमें जमा लो ।
आप हरदम शान्त रहनेका स्वभाव बना लो । काम-धन्धा किया,
फिर शान्त ! संकल्प उठा,
फिर शान्त ! सुननेसे पहले शान्त और सुननेके बाद फिर शान्त !
सुननेसे पहले शान्त होनेसे आपको सुननेकी शक्ति मिलेगी और सुननेके बाद शान्त होनेसे
सुनी हुई बात तत्त्वसे समझमें आयेगी । शान्त रहनेका स्वभाव बना लोगे तो आपकी स्थिति
परमात्मामें हो जायगी । गलती यह होती है कि जल्दी-जल्दी एकके बाद दूसरा काम करनेसे
बीचमें शान्तिका अनुभव नहीं होता । जैसे, झूला झूलता है तो आगे-पीछे जाते समय वह समता (सम स्थिति)-में
आता ही है अर्थात् जहाँसे झूलेकी रस्सी बँधी है,
उसकी सीधमें एक बार आता ही है । इसी तरह प्रत्येक क्रिया करते
समय समता (अक्रिय अवस्था) आती ही है । परन्तु उस समताका पता नहीं चलता,
उस तरफ ख्याल नहीं जाता । तात्पर्य है कि झूलेकी तरह निरन्तर
क्रियामें लगे रहनेसे परमात्मामें स्थिति होते हुए भी आपको इसका अनुभव नहीं होता ।
शान्ति स्वतःसिद्ध है । अगर मनको एकाग्र करोगे,
ध्यानमें लगाओगे तो आपको उद्योग करना पड़ेगा । उद्योग करनेसे
क्रिया और पदार्थके साथ सम्बन्ध होगा । क्रिया और पदार्थके साथ सम्बन्ध होनेसे आप प्रकृतिमें
ही रहोगे । ‘मैं शान्त रहूँगा, मैं क्रिया नहीं करूँगा,
मैं चिन्तन नहीं करूँगा’‒यह भाव रहेगा तो अहंकार आयेगा । अहंकार आयेगा तो प्रकृतिके साथ
सम्बन्ध होगा । इसलिये आप ‘है’ को पकड़ लो । उसमें आपकी स्थिति स्वतः-स्वाभाविक है । वह ‘है’ परमात्मा है और आप सब उसके अंश हो । इसलिये आपमें समता स्वाभाविक है । समता करोगे तो अहंकार, कर्तृत्वाभिमान
आयेगा ।
|