।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
अधिक ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्थी, 
                 वि.सं.-२०७५, शनिवार
 अनन्तकी ओर     


जब एक उद्देश्य बन जायगा कि मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌की तरफ चलँगूा’ तो यमराज आपसे डरेगा ! बड़े-बड़े दोष आपसे डरेंगे ! दोष स्वतः-स्वाभाविक दूर होंगे । आपपर कोई विजय नहीं कर सकेगा । भगवान् आपकी रक्षा करेंगे । जबतक एक उद्देश्य नहीं बनेगा, तबतक सब दोष आपको लूटेंगे, तंग करेंगे । मनुष्य एक राजाकी शरणमें चला जाय तो चोर-डाकू उससे डरने लगते हैं ! आप भगवान्‌की शरणमें चले जाओ तो सब दोष आपसे डरेंगे । आपमें काम, क्रोध आदिको जीतनेकी ताकत आ जायगी । भगवान्‌के साथ आपको जो सम्बन्ध अच्छा मालूम दे, वह मान लो और निश्‍चिन्त हो जाओ ।

चाहे हिन्दू हो, चाहे मुसलमान हो, चाहे ईसाई हो, चाहे यहूदी हो, चाहे पारसी हो, मनुष्यमात्रका उद्देश्य परमात्मप्राप्ति करना है । उस उद्देश्यको भूल गये और भोग भोगने तथा रुपयोंका संग्रह करनेमें लग गये, इसीलिये वस्तु, व्यक्ति, समय, अधिकार आदिका दुरुपयोग हो रहा है । रुपयोंका संग्रह करनेवाला यक्ष’ होता है‒‘यक्षवित्तः पतत्यधः’ (श्रीमद्भा ११ । २३ । २४) यक्षकी तरह धनकी रखवाली करनेवाला मनुष्य अधोगतिमें जाता है’ एक परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होगा तो वस्तु व्यक्ति, समय, अधिकार आदि सबका स्वाभाविक ही सदुपयोग होगा । परमात्माकी प्राप्ति त्यागसे होती है । त्याग हृदयका होता है, उसमें दिखावटीपना नहीं होता । हृदयमें त्याग होगा तो सबका सदुपयोग होगा ।

भोग भोगनेसे स्वभाव बिगड़ता है । वह बिगड़ा हुआ स्वभाव अनेक योनियोंमें आपके साथ जायगा और अनर्थ-ही-अनर्थ करेगा । धनका संग्रह यहीं रह जायगा । एक कौड़ी भी साथ जायगा नहीं । तात्पर्य है कि भोग भोगनेसे बिगड़ा हुआ स्वभाव तो साथ जाता है, पर धनका संग्रह साथ नहीं जाता । बिगड़े हुए स्वभाववाला आप भी दुःख पायेगा और दूसरोंको भी दुःख देगा । दुःखी आदमी ही दूसरोंको दुःख देता है । जो सांसारिक भोगोंका लोलुप है, उसके द्वारा ही दूसरोंको दुःख पहुँचता है । परन्तु जिसका लक्ष्य परमात्मप्राप्तिका हो जायगा, उसके द्वारा किसीको दुःख नहीं होगा । परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेसे बिना कहे, बिना जाने, बिना समझे, अपने-आप आपकी वृत्ति शुद्ध हो जायगी । परन्तु धन कमाने और भोग भोगनेका उद्देश्य रहेगा तो पतन होगा....होगा....होगा ही, ब्रह्माजी भी रोक नही सकते !

मैं धन कमानेका निषेध नहीं करता हूँ प्रत्युत अन्यायपूर्वक धन कमानेका निषेध करता हूँ । गृहस्थके पास धन रहना मैं अच्छा मानता हूँ । मैंने सन्तोंसे एक बात सुनी है कि साधुके पास कौड़ी तो साधु कौड़ीका और गृहस्थके पास कौड़ी नहीं तो गृहस्थ कौड़ीका’ परन्तु अन्यायपूर्वक धन कमाना पतन करनेवाला है । धन साथ नहीं चलेगा, पर अन्याय साथ चलेगा ।


जिसके भीतर भोग और संग्रहकी इच्छा है, उसके द्वारा सदुपयोग नहीं होगा । वह सदुपयोग भी करना चाहेगा तो दुरुपयोग जबर्दस्ती हो जायगा ! जबतक काम, क्रोध और लोभ रहेंगे, तबतक आप सदुपयोग नहीं कर सकते । लोभके कारण बड़ो-बड़ोंकी बुद्धि भ्रष्‍ट हो जाती है । वे विचार करते हैं कि ठीक बोलें, पर ठीक नहीं बोल सकते । युधिष्ठिर सर्वश्रेष्ठ धीरोदात्त’ नायक थे, पर राज्य-लिप्साके कारण वे भी झूठ बोल गये ! श्रेष्ठ पुरुष भी जब लोभमें आ जाते हैं तो उनकी चाल बिगड़ जाती है ।