।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
अधिक ज्येष्ठ कृष्ण पंचमी, 
                 वि.सं.-२०७५, रविवार
 अनन्तकी ओर     


सबका भला चाहो और भगवान्‌को याद रखो‒ये दो बातें करो तो आपका चित्त स्वतः प्रसन्न रहेगा ।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, पाखण्ड आदि कोई भी दोष आ जाय तो भीतर-ही-भीतर हे नाथ ! हे नाथ !’ पुकारो । जैसे कोई डाकू आ जाय तो चिल्लाते हैं कि हमें लूट रहे हैं, रक्षा करो ! बचाओ ! ऐसे ही कोई दोष आ जाय तो पुकारो कि हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! हे मेरे प्रभो ! हे मेरे स्वामी ! बचाओ !’
मैंने एक सन्तकी बात सुनी कि व्याख्यान देते समय कभी उनकी दृष्टि किसी स्‍त्रीपर पड़ जाती और मनमें कोई बुरा भाव पैदा होता तो वे तुरन्त खड़े हो जाते और चोर-चोर’ चिल्लाने लगते । लोग पूछते कि महाराज, चोर कहाँ है ? तो कहते कि चोर भाग गया; अब बैठकर सत्संग सुनो’ और पुनः व्याख्यान देने बैठ जाते ! ये सन्तोंकी युक्ति है !

जगत्, जीव और परमात्मा‒ये तीन हैं । इनमें परमात्मा तथा जीव चेतन हैं और जगत् जड़ है । परमात्मा सर्वोपरि हैं, और वे सब जगह परिपूर्ण हैं । जीवके लिये परमात्मा ही ध्येय, लक्ष्य है । इसमें जो द्वैत और अद्वैतकी बात कही जाती है, वह मत-मतान्तर है । द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत और अचित्त्वभेदाभेद‒ये अलग-अलग आचार्योंके छः मत हैं । परन्तु भगवद्गीता किसी मतमें नहीं है । भगवान्‌का सिद्धान्त है कि जीवका कल्याण कैसे हो ? सभी आचार्य आदरणीय हैं, पूज्य हैं, और सबका सिद्धान्त वास्तवमें जीवका कल्याण करनेका है, पर उनमें परस्पर बड़ा मतभेद है । परन्तु गीतामें किसी मतका आग्रह नहीं है । जैसे कोई एक लकीर खींचे और कहे कि इसको छुए बिना छोटी कर दो तो उसके पास उससे लम्बी लकीर खींच दो तो वह स्वतः छोटी हो जायगी । ऐसे ही गीता किसी भी मतका खण्डन नहीं करती, पर उसकी बातसे स्वतः दूसरे मतका खण्डन हो जाता है । आपलोगोंसे प्रार्थना है कि मतभेदमें आकर राग-द्वेष न करें । जो मत अच्छा लगे, उसपर ठीक तरहसे चलें तो लाभ होगा, इसमें सन्देह नहीं है ।

मैंने गीताकी टीका साधक-संजीवनी’ तथा उसके सिवाय जितनी भी पुस्तकें लिखी हैं, उनमें किसीका भी खण्डन नहीं किया है । मैंने खण्डन-मण्डनकी दृष्टिसे नहीं लिखा है । मैंने अपने सामने एक ही विषय रखा है कि जीवका कल्याण कैसे हो ? मेरेको यह विषय प्रिय लगता है कि सबका उद्धार कैसे हो । मत-मतान्तरसे मेरा क्या लेना-देना !


गीताका पूरा सिद्धान्त मैंने जान लिया‒यह मैं नहीं कहता हूँ । गीताका ठेका मैं नहीं लेता हूँ ! मैंने गीताको जैसा समझा है, वह कहता हूँ । मैंने अपनी बुद्धिका परिचय दिया है कि गीताको मैंने ऐसा समझा है ।