मुक्त होनेपर भी अहंका एक सूक्ष्म संस्कार रह जाता है,
जो जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता,
पर मतभेद करनेवाला होता है । वह अहंकार भी न रहे,
तब ठीक होता है । यह बात गीताके सिद्धान्तसे मैंने समझी है और
यही बात मैंने कही है । यह बात गोस्वामी तुलसीदासजीने भी लिखी है‒
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।
अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥
(मानस, उत्तर॰ ४९ । ३)
यह प्रेम-भक्ति प्राप्त होनेपर वह सूक्ष्म अहं मिट जाता है,
फिर कोई मतभेद नहीं रहता । अतः वास्तवमें
अन्तिम तत्त्व प्रेम है । ज्ञानयोग और कर्मयोग तो साधन हैं, पर
प्रेम साध्य है । यह गीताका सिद्धान्त है ।
आपसे मेरा यह कहना है कि आप परमात्माके चरणोंके शरण हो जायँ‒यह
सर्वोपरि है । यह गीताका सर्वोपरि सिद्धान्त है । इसको गीताने सबसे अत्यन्त गोपनीय
बताया है‒‘सर्वगुह्यतमम्’ (गीता
१८ । ६४) । यह पद गीतामें
एक ही बार आया है । भगवान्ने कहा है‒
सर्वधर्मापरित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(गीता १८ । ६६)
‘सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे
मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर ।’
जो भगवान्के चरणोंकी शरण ले लेता है,
वह कहीं भी नहीं अटकता । वह सर्वथा निर्भय,
निःशंक, निःशोक और निश्चिन्त हो जाता है । कल्याणका सबसे बढ़िया रास्ता शरणागति है । शरणागतिमें सब कुछ आ जाता है
। इसलिये आप सबसे प्रेमपूर्वक, आदरपूर्वक, हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि भगवान्के शरण हो जायँ कि ‘मैं भगवान्का हूँ’ । जो भगवान्के शरण हुए हैं,
उनमें बहुत विलक्षणता आयी है‒ऐसा मैंने देखा है । भगवान्के
शरणागत भक्तमें कभी किसी मतका पक्षपात नहीं होता । शरणागत होनेसे परमात्माकी प्राप्ति
बड़ी सरलतासे होती है । वह शरणागति चाहे आरम्भसे ही कर लो,
चाहे कर्मयोग अथवा ज्ञानयोग करके शरणागति कर लो । यह साधककी
मरजी है ।
मनुष्यशरीर परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है‒इस
बातको भूलो मत । यह खास बात है । मानव-जीवन तभी सफल होगा, जब परमात्माकी प्राप्ति कर लें । सदाके लिये जन्म-मरण मिट जाय,
पराधीनता सर्वथा मिट जाय,
सर्वथा स्वाधीन हो जायँ‒इसके लिये मनुष्यजन्म मिला है । इसलिये
हमारा जितना भी कार्य-कलाप है, वह भगवत्प्राप्तिसे विरुद्ध बिलकुल नहीं होना चाहिये । इसके
लिये रातमें, दिनमें, सब समयमें सावधान रहो । दुःख जितना भी आ जाय,
उसे प्रसन्नतासे सहना है । जैसे बहनें-माताएँ हमारे जन्मके लिये
कष्ट सहती हैं, ऐसे ही हमें परमात्मप्राप्तिके लिये कष्ट सहना है । अपने कर्तव्यका पालन करते हुए जो कष्ट सहते हैं, वह
तपश्चर्या होती है । जब परमात्माकी
प्राप्तिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला है तो फिर परमात्माकी प्राप्ति सुगम नहीं होगी
तो क्या सुगम होगा ? क्या नरकोंमें जाना सुगम होगा
? परमात्माकी प्राप्ति न करके
आप कितने ही बड़े धनी हो जाओ, कितनी ही जमीन-जायदादके मालिक हो जाओ,
राजा-महाराजा हो जाओ,
कोई कामकी चीज नहीं है ! यह सब छूट जायगा । जब सब छूट जायगा
तो फिर पासमें क्या रहेगा ? परमात्मप्राप्तिके बिना कोई चीज कामकी नहीं है । दूल्हेके बिना
बरात किस कामकी ? इसलिये भाइयोंसे, बहनोंसे प्रेमपूर्वक,
आदरपूर्वक यह कहना है कि एक परमात्माकी प्राप्तिका लक्ष्य कर
लो । चलते-फिरते, उठते-बैठते
हर समय भगवान्से यह प्रार्थना करते रहो कि ‘हे
नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’ । फिर सब ठीक होगा ।
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