हाथ काम मुख राम है, हिरदे
साँची प्रीत ।
दरिया गृहस्थी साध की याही उत्तम रीत ॥
जो हाथसे तो काम-धन्धा करते रहे और मुखसे राम राम राम.....चलता रहे और हृदयमें
भगवान्से अपनापन हो, वह गृहस्थी सन्त है । इस साधनको सभी भाई-बहन स्वतन्त्रतासे कर
सकते हैं । हृदयमें भगवान्के प्रति सच्चा प्रेम हो कि भगवान्
हमारे हैं और हम भगवान्के हैं । संसार हमारा नहीं है और हम संसारके नहीं हैं ।
संसारकी सेवा कर देनी है; क्योंकि संसारकी सेवाके लिये ही यहाँ आना हुआ है । संसारसे लेनेके
लिये नहीं आये हैं हम । यहाँ लेना कुछ नहीं है । यहाँकी ये चीजें साथ चलेंगी नहीं ।
मेरी-मेरी कर लोगे तो अन्तःकरणमें मेरेपनका जो संस्कार पड़ेगा,
वह जन्म देगा, दुःख देगा‒
मायामें रह जाय बासना अजगर देह धरासी ।
रुपये-पैसोमें वासना रह गयी तो साँप बनना पड़ेगा । धन साथमें नहीं चलेगा और यदि
भगवद्भजन कर लोगे तो वह साथमें चलेगा । वह असली पूँजी है‒
राम नाम धन पायो
प्यारा,
जनम जनमके मिटत बिकारा ।
‒ ‒ ‒
पायो री मैंने राम रतन धन पायो ।
सन्तोंकी वाणीमें जहाँ गुरु महाराजकी महिमा गायी है,
उसमें कहा है‒गुरुजी महाराज बड़े दाता मिले । उन्होंने हमारेको
भगवान्का नाम देकर धनवान् बना दिया‒‘धिन-धिन धनवंत कर दिया
गुरू मिलिया दातारा ।’ सज्जनो ! इसकी कीमत समझनेपर फिर महिमा समझमें आती है कि नाम
कितना विलक्षण है । सन्त-महात्माओंसे जिनको नाम प्राप्त हुआ है,
वे लोग गुण गाते हैं । जो अच्छे-अच्छे महापुरुष हो गये हैं,
वे भी गुरुकी महिमा गाते हैं । किस बातको लेकर ?
कि महाराजने हमारेको भगवान्का नाम दे दिया ।
उस नामसे क्या-क्या आनन्द होता है, उसका कोई पारावार नहीं । नाम महाराजकी अपार महिमा है,
असीम महिमा है । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सीतारामजीको इष्ट
मानते हैं और वे उनके अनन्य भक्त हैं; परन्तु नामकी महिमा गाते हुए वे कहते हैं‒‘कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई । राम न सकहिं नाम गुन गाई ॥’ नामकी महिमा मैं कहाँतक कहूँ,
भगवान् राम भी नामकी महिमा कह सकते नहीं । अपने इष्टको भी असमर्थ
बता देते हैं अर्थात् इस नामकी महिमाके विषयमें हमारे श्रीरघुनाथजी भी असमर्थ हैं ।
भाई, नामकी महिमा यहाँतक है, यहाँतक है, ऐसा कहनेमें भगवान् भी असमर्थ हैं । अपने इष्टको भी असमर्थ बता
देना क्या तिरस्कार नहीं है ? नहीं, नहीं, आदर है । कैसे ? इस नामकी इयत्ता (सीमा) है ही नहीं कि भाई,
इसकी इतनी-इतनी महिमा है ।
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