दक्षिणमें पण्ढरपुर है । वहाँ नामदेवजी महाराज,
ज्ञानदेवजी महाराज,
सोपानदेवजी आदि कई नामी सन्त हुए हैं । बड़ी विचित्र उनकी वाणी
है । वहाँ दक्षिणमें चोखामेला नामका एक चमार था । विट्ठल-विट्ठल-विट्ठल‒ऐसे भगवान्का
नाम जपता था । पण्ढरपुरके पास ही एक मंगलबेड़ा गाँव है । उसी गाँवमें वह रहता था । वहाँ
एक मकान बन रहा था । उस मकानमें चोखामेला काम कर रहा था । मजदूरी करके वह अपनी जीविका
चलाता था । अचानक वह मकान गिर पड़ा । मकान बहुत बड़ा था,
गिर गया और उसमें चोखामेला दब गया । उसके साथ कई आदमी दबकर मर
गये । उनको उसमेंसे निकालने लगे तो निकालते-निकालते कई महीने लग गये । उन सबको निकाला
तो उनकी केवल हड्डियाँ पड़ी मिलीं । अब किसकी कौन-सी हड्डियाँ हैं,
इसकी पहचान नहीं हो सकती । थोड़े दिनमें तो शरीरकी पहचान भी हो
जाय । अब चोखामेलाकी हड्डियोंकी पहचान कैसे हो ?
तो शायद नामदेवजीने कहा हो कि भाई,
उनकी हड्डियोंको कानमें लगाकर देखो । जिसमें विट्ठल-विट्ठल नामकी ध्वनि होती हो, वह
हड्डी चोखामेलाकी, यह पहचान है । कितने आश्चर्यकी बात है कि मरनेके
बाद भी हड्डीसे नाम निकलता है ! भगवान्का नाम लेते-लेते भक्त नाममय ही हो जाते हैं‒‘चंगा राख तन, मन, प्राण, रहीये नाममें गलतान ।’
बस, सब लोग इसमें गलतान हो जाओ,
इस नाममें तल्लीन हो जाओ । तत्परतासे नाम लेनेवाले ऐसे सन्त
हुए हैं ।
अर्जुनके भी शरीरमेंसे भगवान्का नाम निकलता था । एक दिन अर्जुन सो रहे थे और नींदमें
ही नाम-जप हो रहा था । शरीरके रोम-रोममेंसे कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण नामका जप हो रहा था ।
नामको सुन करके भगवान् श्रीकृष्ण आ गये, उनकी स्त्रियाँ भी आ गयीं । नारदजी आ गये,
शंकरजी आ गये, ब्रह्माजी आ गये, देवता आ गये । भगवान् शंकर नाम सुन-सुन करके नाचने लगे,
नृत्य करने लगे । अर्जुनके तो बेहोशीमें‒गाढ नींदमें भी रोम-रोमसे
कृष्ण-कृष्ण निकलता है । इसमें कारण यह है कि जिसका जो इष्ट
होता है, वह उसीका नाम जपता है, तो
वह नाम भीतर बैठ करके रग-रगमें होने लगता है । हरिरामदासजी महाराजकी वाणीमें आता है‒‘रग-रग आरम्भा, भये अचम्भा छुछुम भेद भणन्दा है ।’
सन्तोंकी वाणी आपलोग पढ़ते ही हो । उसमें आपलोग देखो । ऐसा उनका
भजन होने लगता है, क्यों ? उनकी वह लगन है । वे उसीमें ही तल्लीन हो गये । मन,
बुद्धि, इन्द्रियाँ नाममें लग गयीं,
प्राण उसमें लग गये । शरीरमात्रमें
नाम-जप होने लगा । कितने महान्,
पवित्र, दिव्य
उनके शरीर थे कि उनको याद करनेमात्रसे जीवका कल्याण हो जाय । वे तो नाम-रूप ही बन गये, भगवत्स्वरूप
बन गये । नारदजी महाराज
अपने भक्ति-सूत्रमें लिखते हैं कि भगवान् और भगवान्के जनोंमें भेद नहीं होता‒‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्’,
क्योंकि वे उनके हैं, उस परमात्माके अर्पित हो गये हैं‒‘यतस्तदीयाः ।’
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