संसारमें बहुत-से पुण्यकर्म होते हैं, पर क्या हमें
उनसे पुण्य होता है ? ऐसे ही संसारमें बहुत-से पापकर्म होते हैं, पर क्या हमें उनका
पाप लगता है ? नहीं लगता । क्यों नहीं लगता ? कि हमारा उनसे
सम्बन्ध नहीं है । उनके साथ हमारा सहयोग नहीं है । जैसे संसारमें पुण्य-पाप हो रहे हैं, ऐसे ही मनमें
संकल्प-विकल्प हो रहे हैं । हम उनको करते नहीं और करना चाहते भी नहीं । हम उनके
साथ चिपक जाते हैं तो उनकी पुण्य और पापकी, अच्छे और बुरेकी संज्ञा हो जाती है,
जिससे उनका फल पैदा हो जाता है और वह फल हमें भोगना पड़ता है । इसलिये उनके साथ मिले नहीं । न अनुमोदन करें, न विरोध करें ।
संकल्प-विकल्प उठते हैं तो उठते रहें । यह करना है और यह नहीं करना है—इन दोनोंको उठा दें ।
गीतामें आया है —
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । (३/१८)
करने और न करने—दोनोंका
ही आग्रह न रखें । करनेका आग्रह रखना भी संकल्प है और न करनेका आग्रह रखना भी
संकल्प है । करना भी कर्म है और न करना भी कर्म है । करनेमें भी परिश्रम है और न
करनेमें भी परिश्रम है । अतः करने और न करने—दोनोंसे किंचिन्मात्र भी कोई मतलब न रखकर चुप हो
जायँ तो प्रकृतिका सम्बन्ध छूट जाता है और स्वतः परम विश्राम प्राप्त हो जाता है; क्योंकि क्रियारुपसे प्रकृति ही है । वह क्रिया चाहे
शरीरकी हो, चाहे मनकी हो, सब प्रकृतिकी ही है । इस प्रकार बाहर-भीतरसे चुप हो जायँ
तो जिसको तत्त्वज्ञान कहते हैं, जीवन्मुक्ति कहते हैं, सहज समाधि कहते हैं, वह
स्वतः हो जायगी ।
उत्तम सहजावस्था मध्यमा ध्यानधारणा ।
कनिष्ठा शास्त्रचिन्ता च तीर्थयात्राऽधमाऽधमा ॥
छोटा-से-छोटा साधन तीर्थयात्रा है, उससे ऊँचा शास्त्रचिन्तन है ।
शास्त्रचिन्तनसे ऊँची ध्यान-धारणा है; और ऊँची-से-ऊँची सहजावस्था (सहज समाधि) है,
उस सहजावस्थामें आप पहुँच जायँगे !
सहजावस्था न जाग्रत् है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, न
मूर्च्छा है और न समाधि है । सुषुप्ति और सहजावस्थामें फर्क यही है कि सुषुप्तिमें
बेहोशी रहती है, पर सहजवास्थामें बेहोशी नहीं रहती, प्रत्युत होश रहता है, जागृति
रहती है, ज्ञानकी एक दीप्ती रहती है—
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ।
(गीता ४/२७)
वास्तवमें चुप होना नहीं है, प्रत्युत चुप तो स्वाभाविक है । जिनके वेदान्तके संस्कार हैं, वे समझ जायँगे आत्मा न करता
है, न भोक्ता है । अतः सहजावस्था स्वाभाविक है ।
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